________________
1100 के लगभग माना है। पद्मनन्दि प्राकृत भाषा के उद्भट विद्वान थे। जैनदर्शन तथा तीनों लोकों की स्थिति का उन्हें अच्छा ज्ञान प्राप्त था। अपने समय के वे प्रभावशली आचार्य एवं भट्टारक थे तथा अनेक शिष्य-प्रशिष्यों के स्वामी थे। उस समय प्राकृत के पठन-पाठन का अच्छा प्रचार था। राजस्थान एवं मालवा उनकी गतिविधियों का प्रमुख केन्द्र था। पद्मनन्दि की प्राकृत भाषा की तीन कृतियां उपलब्ध होती हैं जिनमें एक जम्बूदीवपण्णत्ती, दूसरी धम्मरसायण तथा तीसरी प्राकृतपंचसंग्रहवृत्ति है। 216. परमात्मप्रकाश
जोइन्दुकृत परमात्मप्रकाश जैनगृहस्थों तथा मुनियों में बहुत प्रसिद्ध है। विशेषकर साधुओं को लक्ष्य करके इसकी रचना की गई है। विषय साम्प्रदायिक न होने से यद्यपि समस्त जैनसाधु इसका अध्ययन करते हैं, फिर भी दिगम्बर जैनसाधुओं में इसकी विशेष ख्याति है। परमात्मप्रकाश सभी आस्तिकों को प्रिय है। कन्नड और संस्कृत में इस पर अनेक प्राचीन टीकाएँ हैं। वे भी इसकी लोकप्रियता प्रदर्शित करती हैं। अब तक प्रकाश में आये हुए अपभ्रंश साहित्य में परमात्मप्रकाश सबसे प्राचीन है और सबसे पहले प्रकाशन भी इसी का हुआ था। हेमचन्द्र ने अपने प्राकृत व्याकरण में परमात्मप्रकाश से अनेक उदाहरण दिये हैं, अतः इसे हम हेमचन्द्र के पहले की अपभ्रंश भाषा का नमूना कह सकते हैं। .
इस ग्रन्थ में प्रारम्भ के सात दोहों में पंचपरमेष्ठी को नमस्कार किया गया है। फिर तीन दोहों में ग्रन्थ की उत्थानिका है। पाँच में बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा का स्वरूप बताया गया है। इसके बाद दस दोहों में विकलपरमात्मा का स्वरूप आता है। पांच क्षेपकों सहित चौबीस दोहों में सरलपरमात्मा का वर्णन है। 6 दोहों में जीव के स्वशरीर-प्रमाण की चर्चा है। फिर द्रव्य, गुण, पर्याय, कर्म निश्चय सम्यग्दृष्टि, मिथ्यात्व आदि की चर्चा है। दूसरे अधिकार में प्रारम्भ के दस दोहों में मोक्ष का स्वरूप, एक में मोक्ष का फल, उन्नीस दोहों में निबन्ध और व्यवहार मोक्षमार्ग, तथा आठ में अभेदरत्नत्रय का वर्णन है। इसके बाद चौदह में समभाव की चौदहवें में पुण्य पाप की समानता की, और इकतालीस दोहों में शुद्धोपयोग के स्वरूप की चर्चा की है। अन्त में परमसमाधि का कथन है।
प्राकृत रत्नाकर 0 167