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आदि। वनगमन के समय के वर्णन में कवि कहता है कि जानकी सीता अपने घर से उसी प्रकार निकल गई मानों हिमवंत पर्वत से महा नदी गंगा निकली होणिय मंदिरहो विणिग्गय जाणइ,णं हिमवंतहो गंगमहाणइ।-प.च. 23.6
वैश्विक महत्त्व की सूक्तियाँ - महाकवि स्वयम्भू की रचनाओं में उनके व्यवहारिक अनुभव सूक्तियों के रूप में प्राप्त होते हैं। आज के विश्व का इन सूक्तियों से प्रेरणा और प्रोत्साहन मिलता है। कवि को यह विश्वास है कि उसके काव्य-वचन सुभाषित की तरह अमर रहेंगे- होन्तु सुहासिय वयणाई (प.च., 1.1) 213. पउमचरियं
आचार्य विमलसूरि प्राकृत कविता के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उन्होंने रामकथा को आधार बनाकर महाराष्ट्री प्राकृत में पउमचरियं नामक महाकाव्य लिखा है। इसमें 118 सर्ग हैं । इस ग्रन्थ में पौराणिक प्रबन्ध एवं शास्त्राीय प्रबन्ध दोनों के लक्षणों का समावेश है, किन्तु इसे मुख्यतः पौराणिक महाकाव्य कहना अधिक उपयुक्त होगा। इसमें आदि कवि बाल्मीकि की रामायण एवं जैन परम्परा के पुराणतत्व का मिश्रण देखने को मिलता है। किन्तु इससे ग्रन्थ के काव्यतत्व में कमी नहीं आती है।
पउमचरियं की प्रशस्ति में विमलसूरि का समय ईसा की प्रथम शताब्दी दिया है, किन्तु ग्रन्थ के अन्तपरीक्षण से विद्वानों ने इसे तीसरी चौथी शताब्दी का महाकवि माना है। विमलसूरि जितने सिद्धान्त और दर्शन के ज्ञाता हैं उतने ही प्रतिभा सम्पन्न कवि भी है। इस महाकाव्य में उन्होंने कई मौलिक उद्भावनाएं की हैं। इस ग्रन्थ में कवि ने राम और रावण दोनों के चरित को स्वाभाविक रूप से विकसित किया है। इस ग्रन्थ की भाषा प्रांजल और प्रवाहयुक्त है। कवि ने समुद्र, वन, नदी, पर्वत, ऋतु, युद्ध, सौन्दर्य आदि के वर्णन महाकाव्य की गरिमा के अनुसार किये हैं। विभिन्न अलंकारों के प्रयोग से यह काव्य रसमय और आकर्षक बन गया है। सेतुबन्ध महाकाव्य ने देशी-विदेशी कई विद्वानों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया है। अतः इसके जर्मन, संस्कृत हिन्दी एवं अंग्रेजी अनुवाद भी उपलब्ध हैं। विद्वानों ने इस ग्रन्थ का आलोचनात्मक अध्ययन भी
162 0 प्राकृत रत्नाकर