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________________ प्रस्तुत किया है। प्राचीन कवियों ने भी सेतुबन्ध के काव्यात्मक उत्कर्ष का स्मरण किया है। बाणभट्ट ने कहा है कि प्रवरसेन की कीर्ति इस सेतुबन्ध महाकाव्य के कारण सेतु के द्वारा कविसेना की भांति समुद्र के उस पार तक चली गयी है (हर्षचरित 1.14.5)। महाकवि दण्डी ने इसे सूक्तिरूपी रत्नों का सागर कहा है (काव्यादर्श 1.34)। यह प्राकृत का सर्वप्रथम चरित महाकाव्य है। इसकी भाषा महाराष्ट्री प्राकृत है, जिस पर यत्र-तत्र अपभ्रंश का प्रभाव दृष्टिगोचर होता है । भाषा में प्रवाह तथा सरलता है। वर्णनानुकूल भाषा श्लेष, माधुर्य और प्रसाद गुणयुक्त होती गयी है। उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, अर्थान्तरन्यास, काव्यलिंग, श्लेष आदि अलंकारों का इसमें प्रयोग पाया जाता है। वर्णन संक्षिप्त होने पर भी मार्मिक हैं। समुद्र वन, नदी, पर्वत, सूर्योदय, सूर्यास्त, ऋतु, युद्ध आदि के वर्णन महाकाव्यों के समान हैं। इस काव्य में 118 सर्ग हैं। घटनाओं की प्रधानता होने के कारण वर्णन लम्बे नहीं हैं । भावात्मक और रसात्मक वर्णनों की कमी नहीं है। उत्प्रेक्षा द्वारा कवि ने वर्णनों को बहुत सरस और अभिव्यन्जना पूर्ण बनाया है। सन्ध्याकालीन अन्धकार द्वारा सभी दिशाओं को कलुषित होते देखकर कवि उत्प्रेक्षा करता है कि यह तो दुर्जन स्वभाव है, जो सजनों के उज्वल चरित्र पर कालिख पोतता है। यथाउच्छरई तमो गयणो मइलन्तो दिसिवहे कसिणवण्णो। सज्जणचरिउज्जोयं नज्जइ ता दुजण सहावो ॥ -2/100 ॥ इस काव्य में कवि ने गाथा छन्द का प्रयोग प्रधानरूप से किया है। प्रत्येक सर्ग के अन्त में छन्द परिवर्तित हो गया है। वर्णिक छंदों में वसन्ततिलका, उपजाति, मालिनी, इन्द्रवज्रा, उपेन्द्रवज्रा, रुचिरा एवं शार्दूलविक्रीडित का प्रयोग उल्लेखनीय है। - प्राकृत भाषा में निबद्ध यह कृति जैन पुराण साहित्य में सबसे प्राचीन कृति है। इसमें जैन मान्यतानुसार रामकथा का वर्णन है। यह ग्रन्थ 118 अधिकारों में विभक्त है जिनमें कुल मिलाकर 8651 गाथाएँ हैं जिनका मान 12 हजार लोक प्रमाण है। रामचरित पर यह एक ऐसी प्रथम जैन रचना है जिसमें यथार्थता के प्राकृत रत्नाकर 0163
SR No.002287
Book TitlePrakrit Ratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrem Suman Jain
PublisherRashtriya Prakrit Adhyayan evam Sanshodhan Samsthan
Publication Year2012
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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