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________________ जिनरत्नसूर का प्राप्य है। इस कथा - ग्रन्थ के माध्यम से यह विवेचित करने का प्रयत्न किया गया है कि क्रोध, मान, माया, लोभ, हिंसा, चोरी आदि पापों का फल जन्म-जन्मांतरों तक भोगना पड़ता है I यह कथा भी स्त्री - प्रधान नहीं है फिर भी आकर्षण के लिए यह नाम चुना गया है। कुवलयमाला के समान ही इसमें भी संसार - परिभ्रमण के कारणों को प्रदर्शित करने वाली कथाएँ दी गई हैं। कुवलयमाला में जिस तरह क्रोध, मान, माया, लोभ और मोह से प्रभावित व्यक्ति कथा के पात्र बनाये गये हैं । उसी तरह निर्वाणलीलावती में पाँच दोष- युगलों अर्थात् (1) हिंसा-क्रोध (2) मृशा-मान (3) स्तेय - माया (4) मैथुन - मोह और (5) परिग्रह - लोभ को तथा स्पर्शन आदि पंच-इन्द्रियों के वशीभूत होने को संसार का कारण बताते हुए उनका फल भोगनेवाले व्यक्तियों की कथाएँ दी गई हैं। कुवलयमाला के समान ही इसका नाम इन कथाओं के एक नायिका - पात्र के नाम से रखा गया है और कथाओं को एक साथ पूर्वभवों के दृष्टान्त द्वारा जोड़ा गया है। इस कथानक को लेकर प्राकृत भाषा में निव्वाणलीलावई नामक कथा - ग्रन्थ सं. 1082 और 1095 के मध्य आजोपल्ली में जिनेश्वरसूरि ने रचा। समस्त ग्रन्थ प्राकृत पद्यों में है पर मूल रचना अभी तक अनुपलब्ध है । 205. निर्वाणकाण्ड प्राकृत का प्राचीन स्तोत्र निर्वाणकाण्ड हैं। इसमें चौबीस तीर्थंकर एवं अन्य ऋषिमुनियों के निर्वाण - स्थान का निर्देश किया गया है। इस स्तोत्र में तीर्थों का उल्लेखकर वहाँ से मुक्ति पानेवालों को नमस्कार किया है। इस स्तोत्र में अष्टापद, चम्पा, ऊर्जयन्त (गिरनार) सम्मेदशिखर, तारउर, पावागिर, गजपन्था, तुंगीगिर, सुवर्णगिरि, रेवानदी बड़वानी, चेलना नदी, चूलगिरि द्रोणगिरि, मेढगिरि, कुन्थुगिरि, कोटिशिला, रेसिन्दीगिरि स्थानों से निर्वाण - लाभ करने वाले महापुरुषों को नमस्कार किया है । इस काण्ड में कुल 21 गाथाएँ हैं । यह निर्वाणकाण्ड स्तोत्र दिगम्बर सम्प्रदाय में अत्यन्त प्रमाणित स्तोत्र माना जाता है । तीर्थंस्थानों का इतिहास इस स्तोत्र में निहित है । चक्रवर्ती, नारायण, प्रतिनारायण प्राकृत रत्नाकर 155
SR No.002287
Book TitlePrakrit Ratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrem Suman Jain
PublisherRashtriya Prakrit Adhyayan evam Sanshodhan Samsthan
Publication Year2012
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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