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________________ 189.धवला एवंजयधवला टीका . शौरसेनी प्राकृत साहित्य की प्रारम्भिक रचनाओं कषायपाहुड एवं षट्खण्डागम की तरह उनकी टीकाओं का भी शौरसेनी प्राकृत के अध्ययन के लिए विशेष महत्त्व है। इन प्राचीन ग्रन्थों पर टीका लिखने वाले आचार्य वीरसेन हैं। ये जैन दर्शन और संस्कृत प्राकृत भाषाओं के निष्णात पंडित थे। आचार्य जिनसेन (प्रथम) ने अपने गुरु वीरसेन स्वामी के पांडित्य और यश का वर्णन किया है। आचार्य वीरसेन के विद्यागुरु एलाचार्य थे और दीक्षागुरु श्री आर्यनन्दी थे। आचार्य वीरसेन राजस्थान (चित्तौड़) गुजरात, (बाटग्राम, बडौदा) आदि स्थानों पर भी रहे। इन्होंनें षट्खण्डागम पर प्राकृत संस्कृत में धवला टीका लिखी है। आचार्य वीरसेन का समय सन् 816 स्वीकार किया जाता है। _ आचार्य वीरसेन ने जो 72 हजार लोकप्रमाण धवला टीका लिखी है वह शौरसेनी प्राकृत के अनेक रूपों को सुरक्षित किये हुए है। भाषा की दृष्टि से यह टीका अत्यन्त समृद्ध है। आचार्य वीरसेन ने कषायपाहुड पर जयधवला नामक टीका लिखी है। इस टीका के 20 हजार लोकप्रमाण अंश को वीरसेन ने लिखा और उसके बाद असमय में उनका निधन होने पर शेष 40 हजार लोकप्रमाण टीका उनके शिष्य जयसेन (द्वितीय) ने लिखी है। ये दोनों टीकाएँ दर्शन, सिद्धान्त, भाषा और संस्कृति की सामग्री की अनुपम निधि हैं। इन टीकाओं में प्राप्त शौरसेनी प्राकृत सम्बन्धी सामग्री का पूर्णतया विश्लेषण होने पर प्राकृत भाषा के इतिहास पर नया प्रकाश पड़ेगा। इन टीकाओं के प्राकृत शब्दों का कोश बनाना प्राथमिक आवश्यकता है। 190. धातूत्पत्ति - इस ग्रन्थ के लेखक ठक्करफेरु हैं। इसमें 57 गाथायें हैं। इन गाथाओं में पीतल, ताँबा, सीसा, राँगा, काँसा, पारा तथा हिंगुलक, सिन्दूर, कर्पूर, चन्दन, मृगनाभि आदि का विवेचन है। तत्कालीन यव, माशा, टंक और तोला का इसमें परिमाण बताया गया है। 191. धूर्ताख्यान(धुत्तक्खाण) धुत्तक्खाण हरिभद्र की दूसरी उल्लेखनीय रचना है। लेखक ने बड़े प्राकृत रत्नाकर 0145
SR No.002287
Book TitlePrakrit Ratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrem Suman Jain
PublisherRashtriya Prakrit Adhyayan evam Sanshodhan Samsthan
Publication Year2012
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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