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________________ 186. धम्मविहिपयरण( धर्मविधिप्रकरण) इसके कर्ता श्रीप्रभ हैं जिनका समय ईसवीं सन् 1133 अथवा 1229 माना जाता है। इस पर उदयसिंहसूरि ने विवृति लिखी है। धर्मविधि के द्वार, धर्मपरीक्षा धर्म के दोष, धर्म के भेद, गृहस्थधर्म आदि विषयों का यहाँ विवेचन है। धर्म का स्वरूप प्रतिपादन करते हुए इलापुत्र, उदायन राजा, कामदेव श्रावक, जंबूस्वामी प्रदेशी राजा मूलदेव विष्णुकुमार सम्प्रति आदि की कथाएँ वर्णित हैं। 187.धम्मसंगहण (धर्मसंग्रहणी) __ हरिभद्रसूरि का यह दार्शनिक ग्रंथ है। इसके पूर्वार्ध में पुरुषवादिमतपरीक्षा अनादिनिधनत्व अमूर्तत्व परिणामित्व और ज्ञायकत्व तथा उत्तरार्ध भाग में कर्तृत्व, भोक्तृत्व और सर्वज्ञसिद्धि का प्ररूपण है। 188.धरसेन आचार्य इन्द्रनन्दि श्रुतावतार में अर्हद्वलि, माघनन्दि और धरसेन इन तीन आचार्यों की विद्वत्ता का परिचय दिया गया है। सम्भवतः इनमें गुरुशिष्य सम्बन्ध भी रहे हों। धवला टीका में आचार्य धरसेन का विशेष परिचय मिलता है। धरसेन दर्शन और सिद्धान्त विषय के गंभीर विद्वान थे। वे आचार्य के साथ शिक्षक भी थे, मन्त्रशास्त्र के ज्ञाता भी। उनके द्वारा रचित 'योनिपाहुड' नामक ग्रन्थ का उल्लेख मिलता है।आचार्य धरसेन को सभी अंग और पूर्वो का एक देश ज्ञाता माना जाता है। विद्वानों ने विभिन्न साक्ष्यों के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला है कि आचार्य धरसेन वीर-निर्वाण सम्वत् 633 तक जीवित थे। उन्होंने वी.नि.सं. 630-31 में पुष्पदंत और भूतबलि को श्रुत की शिक्षा प्रदान की थी।अतः धरसेन का समय ई. सन् 73 के लगभग स्वीकार किया जाता है। अभिलेखीय प्रमाणों से भी धरसेन ई. सन् की प्रथम शताब्दी के विद्वान् सिद्ध होते हैं। आचार्य धरसेन ने शौरसेनी प्राकृत के प्राचीन ग्रन्थ षट्खण्डागम के विषय का प्रतिपादन अपने शिष्यों पुष्पदंत और भूतबलि को कराया था। धरसेनाचार्य को सौराष्ट्र देश के गिरिनगर की चन्द्रगुफा में रहने वाला सन्त कहा गया है। उनके पास आन्ध्र प्रदेश, वेण नदी के तट से दो आचार्य पढ़ने आये थे। उन्हें दक्षिण देश के आचार्यों ने भेजा था। इससे स्पष्ट है कि शौरसेनी प्राकृत में पठन-पाठन करने वाले आचार्य उस समय सर्वत्र व्याप्त थे। 1440 प्राकृत रत्नाकर
SR No.002287
Book TitlePrakrit Ratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrem Suman Jain
PublisherRashtriya Prakrit Adhyayan evam Sanshodhan Samsthan
Publication Year2012
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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