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________________ बनाया गया। संभवतः इनके ही गुरु जिनेश्वरसूरि खरतरगच्छ के संस्थापक थे। इसी कथा पर नयसुन्दरकृत संस्कृत सुरसुन्दरीचरित्र का उल्लेख मिलता है। 185. धम्मरसायण धर्मरसायन ग्रन्थ के रचयिता पद्मनन्दि मुनि हैं । ग्रन्थ के अन्त में कवि का नाम आया है। प्राकृत और संस्कृत कवियों में इस नाम के कई कवि और आचार्य हुए हैं। निश्चित प्रमाणों के अभाव में रचयिता के विषय में यथार्थ प्रकाश डालना कठिन है। इस काव्य ग्रन्थ में 193 गाथाएँ हैं। धर्मरसायन नाम के मुक्तक काव्य प्राकृत भाषा के कवियों ने एकाध और भी लिखे हैं । इस नाम का आशय यही रहा है कि जिन मुक्तकों में संसार,शरीर और भोगों से विरक्त होने के साथ आचार और नैतिक नियमों को चर्चित किया जाता है वे रचनाएँ धर्मरसायन के अन्तर्गत आती हैं । यद्यपि इस ग्रन्थ में काव्यतत्त्व की अपेक्षा धर्मतत्त्व ही मुखरित हो रहा है तो भी जीवन के शाश्वत नियमों की दृष्टि से इसका पर्याप्त मूल्य है । नैतिक काव्य के प्रायः सभी गुण इसमें वर्तमान हैं। कवि इस धर्मरसायन को सामान्यतया वर्णित करता हुआ रसभेद से उसकी भिन्नता उपमा द्वारा सिद्ध करता है। यथा खीराइं जहा लोए सरिसाइं हवति वण्णणामेण। रसभेएण यताइं पिणाणागुणदोसजुत्ताइं॥१॥ काई विखाराइंजए हवंतिदुक्खवहाणि जीवाणं। काई वितुष्टुिं पुढेि करंति वरवण्णमारोग्गं॥10॥ जिस प्रकार वर्णमात्र से सभी दूध समान होते हैं पर स्वाद और गुण की दृष्टि से भिन्नता होती है, उसी प्रकार सभी धर्म समान होते हैं पर उनके फल भिन्न-भिन्न होते हैं ।आक, मदार या अन्य प्रकार के दूध के सेवन से व्याधि उत्पन्न हो जाती है पर गो दुग्ध के सेवन से आरोग्य और पुष्टिलाभ होता है। इसी प्रकार अहिंसा धर्म के आचरण से शान्तिलाभ होता है पर हिंसा के व्यवहार से अशान्ति और कष्ट प्राप्त होता है। कवि ने चारों गतियों के प्राणियों को प्राप्त होने वाले दुःखों का मार्मिक विवेचन किया है। मनुष्य, तिर्यन्च, नारकी और देव इनकी अपनीअपनी योनियों में पर्याप्त कष्ट होता है। जिसे इन कष्टों से मुक्ति प्राप्त करने की आवश्यकता है वह धर्मरसायन का सेवन करें। प्राकृत रत्नाकर 0143
SR No.002287
Book TitlePrakrit Ratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrem Suman Jain
PublisherRashtriya Prakrit Adhyayan evam Sanshodhan Samsthan
Publication Year2012
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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