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________________ सम्यग्ज्ञान का महत्व गुणस्थानप्राप्ति धर्मसामग्री की दुर्लभता मिथ्यात्व आदि का स्वरूप और क्रोध आदि अंतरंग शत्रुओं के परिहार का उपदेश दिया है। 181. धनपाल महाकवि धनपाल विक्रम की 10वीं - 11वीं शताब्दी का एक अग्रगण्य जिनशासन प्रभावक जैन महाकवि था । वि.सं. 1029 में मालवा के राजा ने जिस समय राष्ट्रकूट राजाओं की राजधानी मान्यखेट को लौटकर वहाँ राष्ट्रकूट राज्य को समाप्त किया, उस समय मार्ग में स्थित धारानगरी में रहते हुए धनपाल ने अपनी छोटी बहिन सुन्दरी के लिए देशी भाषा की पाइय लच्छीनाममाला कृति की रचना की। इस कृति में दी गई प्रशस्ति का ऐतिहासिक महत्त्व है। इससे राष्ट्रकूट राज्य के पतनकाल के साथ-साथ धनपाल के समाकालीन अनेक विद्वानों के समय का प्रामाणिक निर्णय किया जा सकता है। 182.धम्मकहाणयकोस यह ग्रन्थ प्राकृत -कथाओं का कोश है। प्राकृत में ही इस पर वृत्ति है। मूल लेखक और वृत्तिकार का नाम अज्ञात है (जैन ग्रंथावलि, पृ. 267 ) । कथानककोश को धम्मकहाणयकोस भी कहा गया है। इसमें 140 गाथायें हैं। इसके कर्ता का नाम विनयचन्द्र है, इनका समय संवत् 1166 (ई. सन् 1109) है। इस ग्रंथ पर संस्कृत व्याख्या भी है। इसकी हस्तलिखित प्रति पाटण के भंडार में है। 183. धम्मपद की प्राकृत भाषा पालि भाषा में लिखा हुआ धम्मपद प्रसद्धि है । किन्तु प्राकृत भाषा में लिखा हुआ एक और धम्मपद भी प्राप्त होता है, जिसे वी. एम. वरुआ और एस. मित्र ने सन् 1921 में कलकत्ता से प्रकाशित किया है। यह खरोष्ठी लिपि में लिखा गया था। इस की प्राकृत भाषा का सम्बन्ध पैशाची आदि प्राकृत से है । 184. धनेश्वरसूरि सुरसुन्दरीचरियं के प्रणेता धनेश्वरसूरि हैं जो जिनेश्वरसूरि के शिष्य थे । ग्रन्थान्त में 13 गाथाओं की एक प्रशस्ति में ग्रन्थकार का परिचय, रचना का स्थान तथा काल का निर्देश किया गया है । तद्नुसार यह कथाकाव्य चड्डावल्लिपुरी (चन्द्रावती) में सं. 1095 की भाद्रपद कृष्ण द्वितीया गुरुवार धनिष्ठा नक्षत्र में 142 प्राकृत रत्नाकर
SR No.002287
Book TitlePrakrit Ratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrem Suman Jain
PublisherRashtriya Prakrit Adhyayan evam Sanshodhan Samsthan
Publication Year2012
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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