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यहाँ उन्हीं शब्दों का संकलन किया गया है, जो अनादिकाल से प्राकृत साहित्य की भाषा में और उसकी बोलियों में प्रचलित रहे हैं। इस कोश में कुछ शब्द द्रविड, कौल, मुण्डा आदि भाषाओं के भी प्राप्त होते हैं। इस दृष्टि से यह शब्दकोश प्राचीन एवं आधुनिक भारतीय भाषाओं के ऐतिहासिक एवं वैज्ञानिक अध्ययन के लिए बहुत उपयोगी है। इस कोश-ग्रन्थ में जिन देशी शब्दों का संकलन किया गया है, वे अन्यत्र दुर्लभ हैं । इन संकलित शब्दों के अनुशीलन के आधार पर उसके काल के रहन-सहन,रीति-रिवाजों आदि पर भी यथेष्ट प्रकाश पड़ता है। आचार्य हेमचन्द्र ने कोशगत देशी शब्दों के स्पष्टीकरण हेतु इस ग्रन्थ में उदाहरण स्वरूप जो गाथाएँ प्रस्तुत की हैं, उनका साहित्यिक सौंदर्य अद्भुत एवं बेजोड़ है। उनमें शृंगार रस का सुंदर निरूपण हुआ है। अन्य किसी भाषा के कोश में ऐसे सरस पद्य उदाहरण के रूप में देखने को नहीं मिलते हैं। वस्तुतः 'देशीनाममाला' समस्त भारतीय वाड्मय में दुर्लभ शब्दों का संकलन करने वाला अनूठा एवं अपूर्व ग्रन्थ है। 179. द्रव्य परीक्षा
यह ग्रन्थ विक्रम संवत् 1375 ईस्वी सन् 1318 में लिखा गया। इसमें 149 गाथायें हैं । यहाँ सिक्कों के मूल्य, तोल, द्रव्य, नाम और स्थान का विस्तृत परिचय दिया गया है। पहले प्रकरण में चासनी सायणिय और दूसरे में स्वर्ण, रजत आदि मुद्राशास्त्र विषयक भिन्न-भिन्न धातुओं के शोधन का वर्णन है। तीसरे प्रकरण में मूल्य का निर्देश और चौथे में सुवर्ण-रुपये मुद्रा, खुरासानीमुद्रा, विक्रमांक मुद्रा, गुर्जरीमुद्रा, मालवीमुद्रा नलपुरमुद्रा जालंधरीमुद्रा ढिल्लिका, महमूदसाही चउकडीया फरीदी अलाउद्दीनी मोमिनी अलाई, मुलतानी, मुख्तलफी और सीराजी आदि मुद्राओं का वर्णन है। 14वीं शताब्दी के मुद्राविषयक ज्ञान की जानकारी के लिए यह ग्रन्थ अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। ठक्करफेरु के अनुसार दिल्ली की टकसाल में मौजूद सिक्कों का प्रत्यक्ष अनुभव प्राप्त कर मुद्राओं की परीक्षा कर उन्होंने इस ग्रन्थ को लिखा है 180. द्वादशकुलक
इसके कर्ता अभयदेवसूरि के शिष्य जिनवल्लभसूरि (स्वर्गवास विक्रम संवत् 1167 ईसवी 1110)हैं। जिपालगणि ने इस पर विवरण लिखा है। यहाँ
प्राकृत रत्नाकर 0141