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________________ भव्य जीवों की शंका समाधान के लिए निरूपण किया जाता है। णाणाविहहेदूहि-दिव्वज्झुणी भणदि भव्वाणं (तिलोयपण्णत्ति 4/905) ठीक वैसे ही संगणकीय भाषायें स्वयं अर्थरूप नहीं होती हैं, और मशीनी अनुवाद की प्रक्रिया में हमें अर्थ के संसाधन की बात नहीं करनी चाहिए क्योंकि अर्थ का स्थान/आश्रय सांसारिक जीवों का/मनुष्यों का मस्तिष्क ही है या हो सकता है, कोई यन्त्र या मशीन नहीं। इसलिए अर्थ को मशीन से संसाधित करने का व्यर्थ का दबाब मशीन पर नहीं डाला जाना चाहिए। 5- जिस प्रकार कि भव्यजीवों की शंका के निवारणार्थ साधन बनी अभाषात्मक दिव्यध्वनि भव्यजीवों का विषय बनकर सामान्य भाषात्मक हो जाती है, ठीक उसी प्रकार प्राक्कलन की भाषायें सामान्य भाषा की व्याख्या को अपने में न संजोए हुए अभाषात्मक होते हुए भी भाषाई संसाधन का माध्यम होने के कारण भाषात्मकता से जुड़ी रहती हैं। 6- जिस प्रकार भव्य जीव अपनी शंकाओं के निवारणार्थ अनन्तज्ञान के भण्डार पर आश्रत दिव्यध्वनि की शरण लेते हैं, ठीक उसी प्रकार आज के युग के संगणक-वैज्ञानिकों की यह मूल परिकल्पना यह रही है कि जब हम पूरी तरह ज्ञान-स्रोत विकसित कर लेंगे तब जिसको जिज्ञासा होगी, वह मानव अपनी शंकाओं के समाधान के लिए संगणक के अनन्त ज्ञानकोश की शरण लेगा। इस प्रकार यह स्पष्ट होता है कि आज के संगणक-विज्ञान व मशीनीअनुवाद की अधिकांश मान्यतायें दिव्यध्वनि की मूल सोच पर आधारित हैं। या यों कहें कि इसके विकास में कहीं न कहीं किसी न किसी रूप से प्रत्यक्ष या परोक्षरूप में दिव्यध्वनि के सोच की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है। 171. दुर्गदेव(रिष्टसमुच्चय) दुर्गदेव का समय ईसवी सन् 1032 माना जाता है। ये ज्योतिष-शास्त्र के मर्मज्ञ विद्वान् थे। इन्होंने अर्धकाण्ड और रिट्ठसमुच्चय नामक दो ग्रन्थ लिखे हैं। रिट्ठसमुच्चय के अन्त में लिखा है रइयं बहुसत्थत्थं उवजीवित्ता हु दुग्गएवेण। रिटुं समुच्चयसत्थं वयणेण संजमदेवस्स ॥ अर्थात् इस शास्त्र की रचना दुर्गदेव ने अपने गुरु संयमदेव के वचनानुसार की प्राकृत रत्नाकर 0137
SR No.002287
Book TitlePrakrit Ratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrem Suman Jain
PublisherRashtriya Prakrit Adhyayan evam Sanshodhan Samsthan
Publication Year2012
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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