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________________ अर्थात् - क्रोध को क्षमा से, मान को मार्दव भाव से जीते। माया को सरल भाव से और लोभ को संतोष से जीते। नवें अध्ययन विनय समाधि में विनय की विविध धाराओं का प्रतिपादन हुआ है। दसवें सभिक्षु अध्ययन में संवेग, निर्वेद, विवेक, आराधना, ज्ञान, तप आदि भिक्षु के लक्षण बताये हैं । 167. दंसणसत्तरि - ( समत्तसत्तरि ) समत्तसत्तरि समयक्त्व सप्तति-ग्रंथ का दूसरा नाम दंसण-सत्तरि भी है। यह रचना हरिभद्रसूरिकृत आठवीं शती की है। इसमें 70 गाथाओं में सम्यक्त्व का स्वरूप बतलाया गया है। अष्ट प्रभावकों में वज्रस्वामी, मल्लवादि भद्रबाहु, विष्णुकुमार, आर्यखपुट, पादलिप्त और सिद्धसेन का चरित वर्णित है। इस पर संघतिलक सूरिकृत चौदहवी शती की वृत्ति भी उपलब्ध हैं। 168. दिणसुद्धि इसके कर्ता रत्नशेखरसूरि हैं। इसमें 144 गाथाओं में रवि, सोम, मंगल, बुध, गुरु, शुक्र और शनि की शुद्धि का वर्णन करते हुए तिथि लग्न, प्रहर, दिशा और नक्षत्र की शुद्धि बताई है। 169. दिव्यध्वनि और अर्धमागधी जैन - परम्परा के अनुसार दिव्यध्वनि का ग्रथन अर्धमागधी भाषा में किया गया। यह भी मान्यता रही है कि उसके प्रसार करने का दायित्व मागध जाति के देवों का था, जिनकी देवी व्यवस्था के कारण समवसरण में उपस्थित सभी प्रकार श्रोता - प्राणी तीर्थंकर वाणी को समझ लेते थे । तीर्थंकर की ध्वनि तो दिव्य अथवा निरीक्षरी मानी गई है, किन्तु मागधीदेव, उसके प्रसार की ऐसी व्यवस्था करते थे कि हर प्राणी मनुष्य, देव या पशु-पक्षी अपनी भाषा में उसे समझ सकें । उस दिव्यध्वनि की ध्वनि का जब ग्रथन किया गया तो उसमें उस समय की सर्वत्र प्रचलित बोलियों तथा भाषाओं का मिश्रण था। चूँकि मगध क्षेत्र में उनकी दिव्यध्वनि का ग्रथन मागध देवों ने किया, अतः उनकी उस विमिश्रित भाषा का नाम भी अर्धमागधी पड़ा । वस्तुतः दैवी भाषा थी । वह वर्तमान में उपलब्ध अर्धमागधी न थी । वर्तमान में उपलब्ध अर्धमागधी तो मागधी का प्रयोग न तो भास, अश्वघोस या कालिदास जैसे संस्कृत के प्राच्य नाटककारों ने किया और न प्राकृत रत्नाकर 0135
SR No.002287
Book TitlePrakrit Ratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrem Suman Jain
PublisherRashtriya Prakrit Adhyayan evam Sanshodhan Samsthan
Publication Year2012
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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