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उद्धृत हैं। ये पद्य गाथासप्तशती, कर्पूरमंजरी, रत्नावली आदि से लिये गये हैं। इस ग्रन्थ पर धनंजय के लघुभ्राता धनिक ने अवलोक नामक वृत्ति लिखी है । 166. दशवैकालिक (दसवेयालियं )
अर्धमागधी प्राकृत के मूल आगमों में दशवैकालिक का महत्त्वपूर्ण स्थान है। इस सूत्र की रचना आचार्य शरय्यंभवसूरि द्वारा अपने नवदीक्षित अल्प आयु वाले शिष्यों के लिए की गई थी । श्रमण जीवन के लिए अनिवार्य आचार से सम्बन्धित नियमों का इस ग्रन्थ में सुन्दर संयोजन किया गया है। इसका उद्देश्य मुमुक्षु साधकों को अल्प समय में ही आवश्यक ज्ञान प्रदान कर उन्हें आत्मकल्याण के मार्ग की साधना के पथ पर आगे बढ़ाना है । दशवैकालिक में दस अध्ययन हैं, जिनमें श्रमण जीवन के आचार- गोचर सम्बन्धी नियमों का प्रतिपादन किया गया है। प्रथम अध्ययन द्रुमपुष्पिका में अहिंसा, तप एवं संयम युक्त धर्म को उत्कृष्ट मंगल रूप माना है - धम्मो मंगलमुक्किठ्ठे अहिंसा संजमो तव । द्वितीय श्रामण्य अध्ययन में रथनेमि एवं राजीमती के संवाद के माध्यम से कामना के निवारण के उपाय बताये गये हैं। तृतीय अध्ययन क्षुल्लकाचार में यह स्पष्ट किया गया है कि जिसकी धर्म में धृति नहीं होती है, वह आचार एवं अनाचार में भेद नहीं कर सकता है। इसमें 52 अनाचारों का उल्लेख हुआ है। चतुर्थ अध्ययन में षट्जीवनिकाय का वर्णन तथा उनकी रक्षा के लिए पाँच महाव्रतों के पालन एवं रात्रि भोजन के निषेध पर चिन्तन किया गया है। पाँचवें पिण्डैषणा अध्ययन में साधु के लिए भोजन आदि के ग्रहण एवं परिभोग की एषणा का सुन्दर वर्णन है छठें अध्ययन महाचार में अनाचार के विविध पहलुओं पर विचार किया गया है, इसमें परिग्रह की सीमाओं का भी विवेचन है। सातवें वाक्य शुद्धि अध्ययन में भाषा दोष को त्यागने तथा हित-मित और पथ्य भाषा बोलने की शिक्षा दी गई है। आठवें अध्ययन आचारप्रणिधि में श्रमण को इन्द्रियनिग्रह कर मन को एकाग्र करने का संदेश दिया गया है। क्रोध, मान, माया और लोभ इन चारों कषाय के निग्रह का यह संदेश दृष्टव्य है -
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उसमे हणे कोहं, माणं मढवया जिणे ।
मायं चज्जवभावेण, लोभं संतोसओ जिणे ॥ (गा. 8.39 )
134 D प्राकृत रत्नाकर