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________________ जब तक पर द्रव्य में चित्त लगा हुआ है तब तक भव्य पुरुष मोक्ष प्राप्त नहीं क रता । उग्र तप करता हुआ वह शीघ्र ही शुद्ध भाव को प्राप्त होता है। ग्रंथ के अन्त में अपना परिचय देते हुए ग्रंथकार ने लिखा है सोऊण तच्चसारं रइयं मुणिणाह देवसेणेण। जो सदिठी भावइ सो पावइ सासयं सोखं॥ मुनिनाथ देवसेन ने श्रवणकर तत्त्वसार की रचना की है। जो सम्यग्दृष्टि उसकी भावना करता है वह शास्वत सुख पाता है। 161. तरंगवइकहा (तरंगवतीकथा) सुप्रसिद्ध पादलिप्तसूरि सबसे पहले जैन विद्वान हैं जिन्होंने तरंगवती नाम का स्वतंत्रा कथाग्रंथ लिखकर प्राकृत कथा साहित्य में एक नई परंपरा को जन्म दिया। यह कथा प्राकृत कथा साहित्य की सबसे प्राचीन कथा मानी जाती है जो कई दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण है। तरंगवइकार के रूप में इसके कर्ता का उल्लेख अनुयोगद्वारसूत्र 130 में मिलता है । निशीथविशेषचूर्णी में लोकोत्तर धर्मकथाओं में तरंगवती के साथ मलयवती और मगधसेना के नाम उल्लिखित हैं। दशवैकालिक चूर्णी (3, पृष्ठ 109) और जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण के विशेषावश्यक भाष्य (गाथा 1508) में भी तरंगवती का उल्लेख मिलता है। पादलिप्त सातवाहनवंशी राजा हाल की विद्वत्सभा के एक सुप्रतिष्ठित कवि माने जाते थे। जैसे गुणाढ्य ने पैशाची में बृहत्कथा की रचना की, वैसे ही पादलिप्त (पालित अथवा श्रीपालित) ने प्राकृत में तरंगवती नाम की एक अद्भुत कथा लिखी। उद्द्योतनसूरि की कुवलयमाला (ईसवी सन् की आठवीं शताब्दी) में सातवाहन के साथ पादलिप्त का उल्लेख है, पादलिप्त की तरंगवती कथा का भी यहाँ नाम मिलता है। प्रभावकचरित में पादलिप्तसूरि पर एक प्रबंध है जिसके अनुसार ये कवि कौशल के निवासी थे, इनके पिता का नाम फुल्ल और माता का प्रतिमा था। बाल्य अवस्था में जैन दीक्षा ग्रहण कर इन्होंने मथुरा पाटलीपुत्र, लाट, सौराष्ट्र, शत्रुजय आदि स्थानों में भ्रमण किया था। राजशेखर के प्रबंधकोश में भी पादलिप्त की चर्चा है। कवि धनपाल ने अपनी तिलकमंजरी (ईसवी सन् की दसवीं शताब्दी) में तरंगवती की उपमा प्रसन्न और गंभीर पदवाली पुनीत गंगा से प्राकृत रत्नाकर 0 129
SR No.002287
Book TitlePrakrit Ratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrem Suman Jain
PublisherRashtriya Prakrit Adhyayan evam Sanshodhan Samsthan
Publication Year2012
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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