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________________ दी है। लक्ष्मणगणि (ईसवी सन् 1145) ने अपने सुपासनाहचरियं में भी इस कथा की प्रशंसा की है। दुर्भाग्य से प्राचीन काल से यह अद्भुत और सुंदर कृति नष्ट हो गई है। प्रोफेसर लॉयमान ने इस का समय ईसवी सन् की दूसरी तीसरी शताब्दी स्वीकार किया है। 162. तरंगलोला (संक्षिप्त तरंगवती) तरंगवइकहा का संक्षिप्तरूप तरंगलोला के रूप में प्रसिद्ध है जो तरंगवइकहा के लगभग 1000 वर्ष पश्चात् तैयार किया गया। इसके कर्ता हाइयपुरीय गच्छीय वीरभद्र आचार्य के शिष्य नेमिचन्द्रगणि हैं जिन्होंने जस (अथवा यश सेन) नामक अपने शिष्य के लिये 1642 गाथाओं में इस ग्रंथ को संक्षेप में लिखा। ग्रन्थकार के अनुसार पादलिप्तसूरि ने तरंगवइकहा की रचना देशी वचनों में की थी। यह कथा विचित्र और विस्तृत थी, कहीं पर इसमें सुन्दर कुलक थे, कहीं गहन युगल और कहीं दुर्गम षट्क । इस कथा को न कोई कहता था, सुनता था, न पूछता ही था। दुर्बोध होने के कारण यह विद्धान के ही योग्य थी, साधारण जन इससे लाभ नहीं उठा सकते थे। पादलिप्त ने देशीपदों में जो गाथायें लिखी, उन्हें यहाँ संक्षिप्त करके लिखा गया जिससे कि इस कृति का सर्वथा उच्छेद न हो जाये। धनपाल नामक सेठ अपनी सेठानी सोमा के साथ राजग्रह नगर में रहता था। उसके घर के पास की एक वसति में कुमारब्रह्मचारिणी सुव्रता नाम की गणिनी अपने शिष्य-परिवार के साथ ठहरी हुई थी। एक बार सुव्रता की शिष्या तरंगवती अन्य साध्वी को साथ लेकर भिक्षा के लिये सेठानी के घर आई। सेठानी तरंगवती के सौन्दर्य को देखकर बड़ी मुग्ध हुई। उसने तरंगवती से धर्मकथा सुनाने का अनुरोध किया। धर्मकथा श्रवण करने के पश्चात् उसका जीवन एवं वृतांत सुनने की इच्छा प्रकट की। तरंगवती का जीवनचरित सुनकर सेठानी ने श्राविका के बारह व्रत स्वीकार किये। तरंगवती भिक्षा ग्रहण कर अपने उपाश्रय में लौट गई। तरंगवती ने केवल ज्ञान प्राप्त कर सिद्धि पाई, पद्मदेव भी सिद्ध हो गये। यहाँ प्रसंगवश अनेक महत्त्वपूर्ण बातों का उल्लेख किया गया है:- मगधदेश कथा वार्ता के लिए प्रसिद्ध था (गाथा 14)। गणिनी के केशलोंच का उल्लेख आता है 1300 प्राकृत रत्नाकर
SR No.002287
Book TitlePrakrit Ratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrem Suman Jain
PublisherRashtriya Prakrit Adhyayan evam Sanshodhan Samsthan
Publication Year2012
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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