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________________ 129.जिनदत्तसूरि आचार्य(दादागुरू) दादागुरु के विरुद से विख्यात आचार्य जिनदत्तसूरि विक्रम की 12वीं शताब्दी के ऐसे महान प्रभावक आचार्य हुए हैं जिनकी कीर्ति आज भी भारत के अनेक प्रान्तों में सुदूर तक व्याप्त है। वे बड़े ही निर्भीक, प्रत्युत्पन्नमति और स्पष्टवादी थे। जिनदत्तसूरि के पिता का नाम वाच्छिग था। वाच्छिग गुजरात के प्रतिष्ठित एवं राजमान्य हुम्मड कुलोत्पन्न श्रेष्ठिवर थे। उनका मूल निवासस्थान गुजरात का ऐतिहासिक नगर धवलकपुर धोलका था। वाच्छिग तत्कालीन गुजरात के राज्य के मंत्री थे। उनकी धर्मपत्नी का नाम था बाहड़देवी। बाहड़देवी बड़ी धर्मनिष्ठ एवं पतिपरायणा नारी-रत्न थी। जिनदत्तसूरि का प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश आदि भाषाओं पर पूर्ण अधिकार था एवं उनकी शैली और अभिव्यंजना शक्ति अद्भुत थी। उनकी रचनाएँ तत्कालीन साहित्य और भाषा विज्ञान के इतिहास की दृष्टि से भी महत्त्वपूर्ण है। 130.जिनदत्तचरित (सुमतिगणि) यह रचना प्राकृत गद्य-पद्य में 750 ग्रन्थान-प्रमाण है। इसकी रचना पाडिच्छयगच्छ के नेमिचन्द्र के प्रशिष्य एवं सर्वदेवसूरि के शिष्य सुमतिगणि ने की है। ग्रन्थ का रचनाकाल निश्चित नहीं है, तथापि एक प्राचीन प्रति में उसके अणहिलपाटन में सं. 1246 में लिखाये जाने का उल्लेख है अतः ग्रन्थ की रचना इससे पूर्व होना निश्चित है। इसमें वणिक् पुत्रों और सांयात्रिकों की यात्रा का रोचक वर्णन है। जिनदत्ताख्यान के कर्ता सुमतिसूरि हैं जो पाडिच्छयगच्छीय आचार्य सर्वदेवसूरि के शिष्य थे। इसके सिवाय ग्रंथकर्ता का कोई विशेष परिचय नहीं मिलता। रचना साधारण कोटि की है। यहाँ बहुत सी पहेलियाँ दी हुई हैं। कथा का नायक जिनदत्त चंपानगरी के विमलसेठ की कन्या विमलमति के साथ विवाह करता है। उसे जुआ खेलने का शौक है । जुए में वह अपना सब धन खो देता है, और परदेश यात्रा के लिये निकल पड़ता है। दधिपुर नगर में पहुँचकर वह अपने कौशल से महाव्याधि से पीड़ित राजकन्या श्रीमती को निरोग करता है और अन्त में उसके साथ जिनदत्त का विवाह हो जाता है। अन्त में जिनदत्त अपनी पत्नियों के समक्ष अपने वास्तविक रूप को प्रकट कर देता है और अपनी चारों पत्नियों के 1100 प्राकृत रत्नाकर
SR No.002287
Book TitlePrakrit Ratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrem Suman Jain
PublisherRashtriya Prakrit Adhyayan evam Sanshodhan Samsthan
Publication Year2012
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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