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________________ साथ आनन्दपूर्वक रहने लगता है। कालांतर में माता-पिता की अनुमति पूर्वक अपनी पत्नियों और मित्रों के साथ वह दीक्षा ग्रहण कर लेता है। 131.जिनदत्तचरित (अज्ञात) __ साधुपरिचर्या या मुनि-आहारदान के प्रभाव से व्यक्ति जीवन-प्रसंग में खतरों से बचता हुआ, अपनी कितनी शुद्धि कर सकता है इस तथ्य को बतलाने के लिए जिनदत्त के चरित्र को लेकर कई कथाग्रन्थ संस्कृत प्राकृत में लिखे गये हैं। जिनदत्त ने अपने पूर्वभव में मात्र पूर्णिमा के दिन एक मुनिराज को परिचर्यापूर्वक आहारदान दिया। उसके प्रभाव से वह अपने इस भव में द्यूतव्यसन से धनसम्पत्ति खोकर भी नाना प्रकार के चमत्कारी एवं साहसिक कार्य कर सका। उसने वेश परिवर्तन किया, समुद्र-यात्रा की, हाथी को वश में किया, राजकन्याओं से विवाह किया और नाना सुख भोगकर अन्त में तपस्याकर स्वर्ग प्राप्त किया। __ इस कथानक को लेकर सबसे प्राचीन प्राकृत गद्य में अज्ञातकर्तृक कृति मिलती है जिसकी हस्तलिखित प्रति मणिभद्रयति ने वरनाग के लिए सं.1186 में तैयार की थी। इसमें जिनदत्त का पूर्वभव प्रारम्भ में न देकर अन्त में दिया गया है। 132.जिनदासगणी महत्तर . नियुक्ति साहित्य और भाष्य साहित्य की रचना के पश्चात् जैनाचार्यो के अन्तर्मानस में आगमों पर गद्यात्मक व्याख्या साहित्य लिखने की भावना उत्पन्न हुई। उन्होंने शुद्ध प्राकृत में और संस्कृत मिश्रित प्राकृत में व्याख्याओं की रचना की जो आज चूर्णि साहित्य के नाम से विश्रुत है। चूर्णि-साहित्य के निर्माताओं में विशेष सामग्री अनुपलब्ध है। निशीथ निशेषचूर्णि के उपसंहार में चूर्णिकार का नाम जिनदास आया है और ग्रन्थ के प्रारंभ में प्रद्युम्न क्षमाश्रमण का विद्यागुरू के रूप में उल्लेख हुआ है। उत्तराध्ययनचूर्णि के अन्त में चूर्णिकार का परिचय है। उनके सद्गुरू का नाम वाणिज्यकुलीन, कोटिकगणीय, वज्रशाखीय गोपालगणी महत्तर आया है पर स्वयं चूर्णिकार का नाम स्पष्ट रूप से नहीं आया है। विज्ञों का मन्तव्य है कि चूर्णिकार जिनदासगणी महत्तर भाष्यकार जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण के पश्चात् और आचार्य हरिभद्र से पहले हुए हैं क्योंकि भाष्य की अनेक गाथाओं का उपयोग चूर्णियों में हुआ है और आचार्य हरिभद्र ने अपनी वृत्तियों में चूर्णियों का प्राकृत रत्नाकर 0111
SR No.002287
Book TitlePrakrit Ratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrem Suman Jain
PublisherRashtriya Prakrit Adhyayan evam Sanshodhan Samsthan
Publication Year2012
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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