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________________ 80 श्राद्धविधि प्रकरणम् निकलता उसे 'द्विदल' कहते हैं। द्विदलजाति में उत्पन्न हुआ हो तो भी जिसमें तैल निकलता हो उसे द्विदल में नहीं गिनना। द्विदल की पूपि का (आटे का पदार्थ विशेष) आदि, केवल पानी में पकाया हुआ भात तथा ऐसी ही अन्य वस्तुएं बासी हो तो, वैसे ही सड़ा हुआ अन्न, फूला हुआ भात और पक्वान्न अभक्ष्य होने से श्रावक को उसका उपयोग न करना। बावीस अभक्ष्य का तथा बत्तीस अनन्तकाय का प्रकट स्वरूप 'स्वकृतश्राद्धप्रतिक्रमण सूत्रवृत्ति' से जान लेना। विवेकी पुरुष को जैसे अभक्ष्य का उपयोग न करना, वैसे ही बैंगन, सचित्त मिटि, टेमरू, जामुन, बिल्व फल, हरे पीलू, पके हुए करौंदे, गोंदे, पिचु, महुआ, मकुर (आम्रादि की महोर), वाल्हउली (शेके हुए ओले), बड़े बेर, कच्चा कोठिंबड़ा, खसखस, तिल, सचित्त लवण इत्यादिक वस्तु बहुबीज तथा जीवाकुल होने से त्यागना। लालिमा आदि होने से जिसपर बराबर तेज नहीं ऐसे गिलोड़े, करेले, फणस आदि वस्तु जिस देश, नगर इत्यादि में कड़वा तुम्बा, भरा कुम्हडा आदि लोक विरुद्ध हो तो वे भी श्रावक को त्यागना, कारण कि, वैसा न करने से जैनधर्म की निंदा आदि होने की संभावना होती है। बावीस अभक्ष्य तथा बत्तीस अनन्तकाय दूसरे के घर अचित्त किये हुए हों तो भी ग्रहण नहीं करना। कारण कि, उससे अपनी क्रूरता प्रकट होती है, तथा अपने को अचित्त अनंतकाय आदिलेना है' ऐसा जानकर वे लोग विशेष अनंतकायादि का आरंभ करें, इत्यादि दोष होना संभव है। उकाला हुआ पकाया हुआ अद्रक, सूरन, बैंगन इत्यादिक सर्व अचित्त हो तो भी त्यागना चाहिए। कदाचित् कुछ दोष हो जाये वह टालने के निमित्त मूल के पंचांग (मूल, पत्र, फूल, फल तथा दांडी) त्यागना। सोंठ आदि तो नाम तथा स्वाद में भेद हो जाने से ग्रहण करते हैं। उसिणोदगमणुवत्ते, दंडे वासे अपडिअमित्तंमि। मुत्तूणादेसतिगं, चाउलउदगं बहु पसन्नं ।।१।। गरम जल तो तीन उकाले न आये तब तक मिश्र होता है। पिंडनियुक्ति में कहा है कि, तीन उकाले न आये हो तबतक गरम पानी मिश्र होता है। उसके उपरान्त अचित्त होता है। वैसे ही वृष्टि पड़ते ही ग्राम, नगर इत्यादिक में जहां मनुष्य का अधिक प्रचार होता है, उस स्थान में पड़ा हुआ जल जब तक बहता नहीं तब तक मिश्र होता है। अरण्य में तो जो प्रथम वृष्टि का जल पड़ता है, वह सब मिश्र और पीछे से पड़े वह सचित्त होता है। ____ तंडुलोदक (चावल का पानी) तो तीन आदेश छोड़कर बहुत स्वच्छ न हो तो मिश्र और बहुत स्वच्छ होवे तो अचित्त है। तीन आदेश इस प्रकार हैं कोई कोई कहते हैं कि, तंडुलोदक-जिस पात्र में चावल धोये हो, उस पात्र में से दूसरे पात्र में निकाल लेने पर धारा से टूटकर आसपास लगे हुए बिन्दु जब तक टिके १. परिशिष्ट में देखो।
SR No.002285
Book TitleShraddhvidhi Prakaranam Bhashantar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherJayanandvijay
Publication Year2005
Total Pages400
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size8 MB
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