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श्राद्धविधि प्रकरणम्
81 रहें, तब तक मिश्र होता है। दूसरे यह कहते हैं कि, तंडुलोदक दूसरे पात्र में निकालते वक्त आये हुए पर्पोटे जब तक रहें, तब तक मिश्र होता है। तीसरे यह कहते हैं कि,जब तक धोये हुए चावल पकाये न हो, तब तक मिश्र होता है। ये तीनों आदेश बराबर नहीं है,इसलिए अनादेश समझना चाहिए। कारण कि पात्र रुक्ष (सूखा) हो अथवा पवन या अग्नि का स्पर्श हो तो बिन्दु थोड़ी ही देर तक स्थित रहते हैं, और पात्र स्निग्ध (चिकना) हो तथा पवन या अग्नि का स्पर्श न हो तो बहुत देर तक स्थित रहते हैं। तात्पर्य यह है कि, इन तीनों आदेश में काल-नियम का अभाव है, अतएव अतिशय स्वच्छ हो वही तंडुलोदक अचित्त मानना चाहिए।
नीव्रोदक धुएं से कुछ धूम्रवर्ण तथा सूर्यकिरण के सम्बन्ध से कुछ-कुछ गरम होता है, इससे अचित्त है, इसलिए लेने में (संयम की) कुछ भी विराधना नहीं। कोईकोई कहते हैं कि उसे अपने पात्र में ग्रहण करना। यहां आचार्य कहते हैं कि, नीव्रोदक अशुद्धि होने से अपने पात्र में लेने की मनायी है। इसलिए गृहस्थ की कुंडी आदि में ही लेना। वृष्टि हो रही हो उस समय यह मिश्र होता है। इसलिए वृष्टि बंद होने के दो घड़ी पश्चात् लेना। शुद्धजल तीन उकाले आने पर अचित्त होता है, तो भी तीन प्रहर के अनन्तर (चातुर्मास में) वह पुनः सचित्त हो जाता है, इसलिए उसमें राख (चूना) डालना जिससे वह जल स्वच्छ भी रहता है। ऐसा पिंडनियुक्ति की वृत्ति में कहा है।
. तंडुलोदक पहिला, दूसरा और तीसरा तत्काल का निकाला हुआ हो तो मिश्र और निकालने के पश्चात् बहुत समय तक रहा हो तो अचित्त होता है। चौथा, पांचवां इत्यादि तंडुलोदक बहुत समय रहने पर भी सचित्त होता है। प्रवचनसारोद्धारादिक ग्रंथों में अचित्त जलादिक का कालमान इस प्रकार कहा है
उसिणोदयं तिदंडुक्कलिअं फासुअजलं जईकप्पं। नवरि गिलाणाइकए पहरतिगोवरिवि धरियव्वं ॥१॥ जायइ सचित्तया से, गिम्हासु पहरपंचगस्सुवरि।
चउपहरुवरि सिसिरे, वासासु जलं तिपहरुवरि ।।२।। गरम पानी त्रिदंड (तीन उकाले आया हुआ) उकाला हुआ हो तो अचित्त होने से साधु को ग्राह्य है, परंतु ग्लानादिक के निमित्त तीन प्रहर उपरान्त भी रखना। अचित्त जल ग्रीष्मऋतु में पांच प्रहर उपरांत, शीतऋतु में चार प्रहर उपरांत और वर्षाऋतु में तीन प्रहर उपरांत सचित्त होता है। ग्रीष्मऋतु में काल अत्यन्त शुष्क होने से जल में जीव की उत्पत्ति होने में बहुत समय (पांच प्रहर) लगता है। शीतऋतु में काल स्निग्ध होने से ग्रीष्म की अपेक्षा थोड़ा समय (चार प्रहर) लगता है, और वर्षाऋतु में काल अतिशय स्निग्ध होने से शीतऋतु की अपेक्षा भी थोड़ा समय (तीन प्रहर) लगता है। जो उपरोक्त काल से अधिक रखना हो तो, उसमें राख (चूना) डालना, जिससे पुनः सचित्त न हो। ऐसा १३६ वें द्वार में कहा है। जो अप्कायादिक (जलआदि) अग्नि आदिक बाह्य शस्त्र का सम्बन्ध हुए बिना स्वभाव से ही अचित्त हो गया हो, उसे केवली,