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श्राद्धविधि प्रकरणम्
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( लेना कल्पे ) । साधु को लक्षकर सत्तु-सेके हुए धान्य के आटे की यतना कल्पवृत्ति के चौथे खंड में इस प्रकार कही है
जिस देश, नगर इत्यादि में सत्तु के अंदर जीव की उत्पत्ति होती हो, वहां उसे न लेना । लिये बिना निर्वाह न होता हो तो उसी दिन किया हुआ लेना । ऐसा करने पर भी निर्वाह न हो तो दो तीन दिन का किया हुआ पृथक्-पृथक् लेना। चार पांच इत्यादि दिन का किया हुआ हो तो इकट्ठा लेना वह लेने की विधि इस प्रकार है—
रजस्त्राण नीचे बिछाकर उसपर पात्र कंबल रख उसपर सत्तु को बिखेरना, पश्चात् ऊपर के मुख से पात्र को बांधकर, एक बाजू जाकर जो इली (जीव विशेष) आप कहीं लगी हो तो निकालकर ठीकरे में रखना । इस तरह नौ बार प्रतिलेखन करने पर भी जो जीव नजर न आवे तो, वह सत्तु भक्षण करना । और जो जीव दीखे तो पुनः नौ बार प्रतिलेखन करना, फिर भी जीव दीखे तो पुनः नौ बार प्रतिलेखन करना। इस प्रकार शुद्ध हो तो भक्षण करना और न हो तो परठ देना, परन्तु जो खाये बिना निर्वाह न होता होतो, शुद्ध हो तब तक प्रतिलेखनकर शुद्ध होने पर खाना । निकाली हुई इली घट्टे आदि के पास फोतरे का बहुत सा ढेर हो, वहां ले जाकर यत्न से रखना । पास में घट्टा न हो तो ठीकरे आदि के ऊपर थोड़ा सत्तु बिखेरकर जहां अबाधा न हो ऐसे स्थान में रखना। पक्वान्न इत्यादि के उद्देश्य से इस प्रकार कहा है
वासासु पनरदिवसं सीउण्हकालेसु मास दिणवीसं । ओगाहिमं जईणं, कप्पइ आरब्भ पढमदिणा ॥ १ ॥
घृतपक्वादि पक्वान्न साधु मुनिराज को वर्षाकाल में, किये हुए दिन से लेकर पन्द्रह दिन तक, शीतकाल में एक मास तक और उष्णकाल में बीस दिन तक लेना ग्राह्य है। कोई कोई आचार्य ऐसा कहते हैं कि यह गाथा मूल कौन से ग्रंथ में है ?' सो ज्ञात नहीं होता, इसलिए जब तक वर्ण, गंध, रसादिक न पलटे तब तक घृतपक्वादि वस्तु शुद्ध जानना चाहिए।
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जड़ मुग्गमासपभिई, विदलं कच्चमि गोरसे पडइ । ता तसजीवुप्पत्तिं, भांति दहिए वि दुदिणुवरिं ॥ १ ॥ जंमि उ पीलिज्जते, नेहो नहु होइ बिंति तं विदलं । विदले वि हु उप्पन्नं, नेहजुअं होइ नो विदलं ॥२॥
जो मूंग, उडद आदि द्विदल कच्चे गौरस में पड़े तो उसमें और दो दिन उपरान्त रहे हुदही में भी सजीव की उत्पत्ति हो जाती है ऐसा पूर्वाचार्य कहते हैं । इस गाथा में 'दुदिणुवरि' (दो दिन के उपरान्त) के बदले 'तिदिणुवरि' (तीन दिवस के उपरान्त) ऐसा भी पाठ कहीं है, परन्तु वह ठीक नहीं ऐसा मालूम होता है, कारण कि, 'दध्यहर्द्वितयातीतम्' ऐसा हेमचन्द्राचार्य महाराज का वचन है । घानी में पीलने पर जिसमें से तैल नहीं
१. "केचित्त्वस्या गाथाया अलभ्यमानस्थानत्वं" श्रा.वि. पृ. ९०