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________________ 68 श्राद्धविधि प्रकरणम् की एकाग्रता के लिए गिनना। उसका (नवकार का) एक-एक अक्षर, पद इत्यादि भी गिनना। आठवें प्रकाश में कहा है कि पंचपरमेष्ठि के नाम से उत्पन्न हुई सोलह अक्षर की विद्या है, उसका दो सो जाप करे, तो उपवास का फल मिलता है। 'अरिहंतसिद्धआयरिअ-उवज्झायसाहु' ये सोलह अक्षर हैं। इसी तरह मनुष्य तीनसो बार छः अक्षर के मंत्र का, चारसो बार चार अक्षर के मंत्र का और पांचसो बार 'अ' इस वर्ण का एकाग्रचित्त से जाप करे तो उपवास का फल पाता है। यहां 'अरिहंतसिद्ध' यह छः अक्षर का तथा 'अरिहंत' यह चार अक्षर का मंत्र जानो। ऊपर कहा हुआ फल केवल जीव को प्रवृत्त करने के लिए ही दर्शाया हैं। परमार्थ से तो नवकार मंत्र के जाप का फल स्वर्ग तथा मोक्ष है। वैसे ही कहा है कि नाभिकमल में सर्वतोमुखि "अ" कार, शिरःकमल में "सि" कार, मुखकमल में "आ" कार, हृदयकमल में "उ" कार, कंठपंजर में "सा" कार रहता है ऐसा ध्यान करना। तथा दूसरे भी सर्व कल्याणकारी मंत्र बीजों का चिंतन करना। इस लोक संबंधी फल की इच्छा करनेवाले मनुष्यों को (नवकार) मंत्र ॐ सहित पठन करना और जो निर्वाणपद के इच्छुक हों उनको ॐकार रहित पठन करना। इस तरह चित्त स्थिर होने के लिए इस मंत्र के वर्ण और पद क्रमशः पृथक् करना। जपादिक का बहुत फल कहा है, यथा-करोडों पूजा के समान एक स्तोत्र है, करोडों स्तोत्र के समान एक जाप है, करोडों जप के समान ध्यान है और करोडों ध्यान के समान लय (चित्त की स्थिरता) है। चित्त की एकाग्रता होने के निमित्त जिनेश्वर-भगवान् की कल्याणकादि भूमि इत्यादि तीर्थ का अथवा अन्य किसी चित्तको स्थिरकरनेवाले पवित्र एकांत स्थानका आश्रय करना।ध्यानशतक में कहा है कि तरुण स्त्री, पशु, नपुंसक और कुशीलपुरुष इनसे सर्वदा रहित ऐसा पवित्र एकांत स्थान मनिराज का होता है। ध्यान करने के समय ऐसा ही स्थान विशेष आवश्यक है। जिनके मन, वचन, काया के योग स्थिरता पाये हों और इसीसे ध्यान में निश्चल मन हुआ हो उन मुनिराज को तो मनुष्य की भीड़वाले गांव तथा शून्यअरण्य में कोई भी विशेषता नहीं। अतएव जहां मनवचनकाया के योग स्थिर रहें व किसी जीव को बाधा न होती हो वही स्थान ध्यान करनेवाले के लिए उचित है। जिस समय मनवचनकाया के योग उत्तम समाधि में रहते हों, वही समय ध्यान के लिए उचित है। ध्यान करनेवाले को दिन का अथवा रात का ही समय चाहिए इत्यादि नियम (शास्त्र में) नहीं कहा। देह की अवस्था ध्यान के समय जीव को बाधा देनेवाली न हो उसी अवस्था में, चाहे बैठकर, खड़े रहकर अथवा अन्य रीति से भी ध्यान करना। कारण कि साधुजन सर्वदेशों में, सर्वकाल में और सर्वप्रकार की देह की चेष्टा में पापकर्म का क्षय करके सर्वोत्कृष्ट केवलज्ञान को प्राप्त हुए। इसलिए ध्यान के संबंध में देश, काल और देह की १. इस ग्रंथ के रचना काल के समय 'असिआउसा' का जाप प्रारंभ हो गया था। यह इस कथन से स्पष्ट हो रहा है। यहाँ यह कथन कहाँ कहा गया है इसका स्पष्टीकरण भी नहीं है।
SR No.002285
Book TitleShraddhvidhi Prakaranam Bhashantar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherJayanandvijay
Publication Year2005
Total Pages400
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size8 MB
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