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________________ श्राद्धविधि प्रकरणम् 67 वचन काया की शुद्धि से जो इस प्रकार से एकसौ आठ बार मौन रहकर नवकार का चिन्तन करे, तो भोजन करने पर भी अवश्य उपवास का फल पाता है। नंद्यावर्त, शंखावर्त्त, इत्यादि प्रकार से हस्त जाप करे, तो भी इष्टसिद्धि आदिक बहुत से फल की प्राप्ति होती है। कहा है कि - करआवत्ते जो पंचमंगलं साहुपडिमसंखाए । नववारा आवत्तइ छलंति तं नो पिसायाई ॥ १ ॥ जो मनुष्य हस्तजाप में नंद्यावर्त्त बारह संख्या को नव बार अर्थात् हाथ ऊपर फिरते हुए बारह स्थानों में नव फेरा याने एकसो आठ बार नवकार मंत्र जपे, उसको पिशाचादि व्यंतर उपद्रव नहीं करे। बन्धनादि संकट हो तो नंद्यावर्त्त के बदले उससे विपरीत (उलटा) शंखावर्त्त से अथवा मंत्र के अक्षर किंवा पद के विपरीत क्रम से नवकार मंत्र का लक्षादि संख्या तक जाप करने से भी क्लेश का नाश आदि शीघ्र होता है। ऊपर कहे अनुसार कमलबंध अथवा हस्तजाप करने की शक्ति न हो तो, सूतर रत्न, रुद्राक्ष इत्यादि की जपमाला ( नवकारवाली) अपने हृदय की समश्रेणी में पहने हुए वस्त्र को व पांव को स्पर्श न करे, इस प्रकार धारण करना, और मेरु का उल्लंघन न करते जाप करना । कहा है कि अङ्गुल्यग्रेण यज्जसं, यज्जतं मेरुलङ्घने । व्यग्रचित्तेन यज्जप्तं, तत्प्रायोऽल्पफलं भवेत् ॥ १ ॥ सङ्कुलाद्विजने भव्यः सशब्दात्मौनवान् शुभः। मौनजापान्मानसः श्रेष्ठो, जापः श्लाघ्यः परः परः ।।२।। अंगुलि के अग्रभाग से, व्यग्रचित्त से तथा मेरु के उल्लंघन से किया हुआ जाप प्रायः अल्पफल का देनेवाला होता है। लोक समुदाय में जाप करने की अपेक्षा एकांत में, मंत्राक्षर का उच्चारण करने की अपेक्षा मौन से तथा मौन से करने की अपेक्षा भी मन के अंदर जाप करना श्रेष्ठ है, इन तीनों में प्रथम से दूसरा और दूसरे से तीसरा जाप श्रेष्ठ है। जाप करते हुए थक जाय तो ध्यान करना तथा ध्यान करते थक जाय तो जाप करना, वैसे ही दोनों से ही थक जाय तो स्तोत्र कहना ऐसा गुरु महाराज ने कहा है। श्रीपादलिप्तसूरिजी ने निजरचित प्रतिष्ठाप्रद्धति में भी कहा है कि, मानस, उपांशु और भाष्य इस प्रकार जाप के तीन भेद हैं। केवल मनोवृत्ति से उत्पन्न हुआ तथा मात्र स्वयं ही जान सके वह मानस जाप, दूसरा न सुन सके इस प्रकार अंदर बोलना वह उपांशु जाप तथा दूसरा सुन सके इस प्रकार किया हुआ भाष्य जाप है। इनमें प्रथम का शान्ति आदि उत्तमकार्य में, दूसरे का पुष्ट्यादि मध्यम कार्य में तथा तीसरे का अभिचार, जारण, मारण आदि अधमकार्य में उपयोग करना । मानस जाप यत्नसाध्य है और भाष्यजाप अल्पफल देनेवाला है, इसलिए साधारण होने से उपांशु जाप का ही उपयोग करना। नवकार के पांच अथवा नव पद अनानुपूर्वी (विपरीतक्रम) भी चित्त
SR No.002285
Book TitleShraddhvidhi Prakaranam Bhashantar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherJayanandvijay
Publication Year2005
Total Pages400
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size8 MB
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