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________________ 69 श्राद्धविधि प्रकरणम् अवस्था का कोई भी नियम सिद्धांत में नहीं कहा। जैसे मनवचनकाया के योग समाधि में रहे, वैसे ही ध्यान करने का प्रयत्न करना। नवकार मंत्र इस लोक में तथा परलोक में अति ही गुणकारी है। महानिशीथ सूत्र में कहा है कि नासेइ चोरसावयविसहरजलजलणबंधणभयाई। चिंतिज्जंतो रक्खसरणरायभयाइं भावेण ।।१।। अन्यत्रापि-जाएवि जो पढिज्जइ, जेणं जायस्स होइ फलरिद्धी। अवसाणे वि पढिज्जइ, जेण मओ सुग्गई जाइ ।।१।। आवइहिंपि पढिज्जइ, जेण य लंघेइ आवइसयाई । रिद्धीए वि पढिज्जइ, जेण य सा जाइ वित्थारं ।।२।। नवकारइक्कअक्खरपावं फेडेइ सत्त अयराणं। पन्नासं च पएणं, पंचसयाई समग्गेणं ।।३।। जो गुणइ लक्खमेगं, पूएइ विहीइ जिणनमुक्कार। तित्थयरनामगोअं, सो बंधइ नत्थि संदेहो ।।४।। अटेव य अट्ठ सया अट्ठसहस्सं च अट्ठ कोडीओ। जो गुणइ अट्ठ लक्खे, सो तइअभवे लहइ सिद्धिं ।।५।। नवकार मंत्र का भाव से चिंतवन किया हो तो वह चोर, श्वापद (जंगली जानवर), सर्प,जल, अग्नि, बंधन, राक्षस, संग्राम तथा राजा इनके द्वारा उत्पन्न भय का नाश करता है। अन्य स्थान में भी कहा है कि, जीव को जन्मसमय में भी नवकार गिनना (सुनाना), कारण कि उससे उत्पन्न होनेवाले [बालक] जीव को उत्तम फल की प्राप्ति होती है। देहांत के समय में भी नवकार गिनना, कारण कि, उससे मरनेवाला जीव सुगति को जाता है। आपत्ति के समय भी नवकार गिनना,कारण कि इससे सैंकडों आपत्तियों का नाश होता है। बहुत सी ऋद्धि हो तो भी गिनना, कारण कि इससे ऋद्धि की वृद्धि होती है। नवकार का एक अक्षर गिने तो सात सागरोपम की स्थितिवाला, एक पद गिने तो पचास सागरोपम की स्थितिवाला और समग्र नवकार गिने तो पांचसौ सागरोपम स्थितिवाला पापकर्म नाश को प्राप्त होता है। जो मनुष्य एक लक्ष नवकार गिने और विधिपूर्वक जिनेश्वर की पूजा करे वह तीर्थंकर नामगोत्र संचित करे इसमें संशय नहीं। जो जीव आठकरोड,आठ लाख, आठ हजार, आठसो आठ (८०८०८८०८) बार नवकार मंत्र गिने वह तीसरे भव में मुक्ति पाता है। नवकार माहात्म्य के ऊपर इसलोक संबंध में श्रेष्ठि पुत्र शिवकुमारादिक का दृष्टांत है, श्रेष्ठिपुत्र शिवकुमार जूआ आदि व्यसन में आसक्त होने से उसके पिता ने उसे शिक्षा दी कि, कोई संकट आ पड़े तो नवकार मंत्र का जाप करना। कुछ काल में पिता के मर जाने के बाद व्यसन से निर्धन हुआ शिवकुमार धन के निमित्त किसी त्रिदंडी के कहने से उत्तर साधक हुआ। कृष्ण चतुर्दशी की रात्रि में स्मशान में मृत
SR No.002285
Book TitleShraddhvidhi Prakaranam Bhashantar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherJayanandvijay
Publication Year2005
Total Pages400
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size8 MB
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