SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 74
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 63 श्राद्धविधि प्रकरणम् शकार मानकर, 'शृणोति यतिभ्यः सम्यक् सामाचारीमिति श्रावकः' अर्थात् साधु के पास से सम्यक् प्रकार से सामाचारी सुने वह श्रावक है। ये दोनों अर्थ भावश्रावक की अपेक्षा से ही हैं। कहा है कि जिसके पूर्व संचित अनेक पाप क्षय होते हैं, अर्थात् जीवप्रदेश से बाहर निकल जाते हैं, और जो निरन्तर व्रतों से घिरा हुआ है, वही श्रावक कहलाता है। जो पुरुष सम्यक्त्वादिक पाकर प्रतिदिन मुनिराज के पास उत्कृष्ट सामाचारी सुनता है, उसे चतुर मनुष्य श्रावक कहते हैं। जो पुरुष 'श्रा' अर्थात् सिद्धांत के पद का अर्थ सोचकर अपनी आगम ऊपर की श्रद्धा परिपक्व करे, 'व' अर्थात् नित्य सुकार्य में धन का व्यय करे, तथा 'क' अर्थात् श्रेष्ठ मुनिराज की सेवा करके अपने दुष्कर्मों का नाश कर डाले याने खपावे, इसी हेतु से श्रेष्ठपुरुष उसे श्रावक कहते हैं। अथवा जो पुरुष 'श्रा' अर्थात् पद का अर्थ मनन करके प्रवचन ऊपर श्रद्धा परिपक्व करे, तथा सिद्धांत श्रवण करे, 'व' अर्थात् सुपात्र में धन व्यय करे, तथा दर्शन समकित ग्रहण करे'क' अर्थात् दुष्कर्म का क्षय करे,तथा इन्द्रियादिक का संयम करे उसे श्रावक कहते श्राद्धशब्द का अर्थ : . जिसकी सद्धर्म में श्रद्धा है, वह 'श्राद्ध' कहलाता है। (मूल शब्द श्रद्धा था उसमें 'प्रज्ञाश्रद्धा वृत्तेर्णः' इस व्याकरण सूत्र से 'ण' प्रत्यय लगाया, तो प्रत्यय के णकार का लोप और आदि वृद्धि होने से 'श्राद्ध' यह रूप होता है।) श्रावक शब्द की तरह 'श्राद्ध' शब्द का उपरोक्त अर्थ भावश्रावक की ही अपेक्षा से है। इसीलिए गाथा में कहा है कि 'यहां भाव श्रावक का अधिकार है।' . इस तरह चौथी गाथा में श्रावक का स्वरूप बताया। अब दिवसकृत्य, रात्रिकृत्य, आदि जो छः विषय हैं उसमें से प्रथम 'दिवसकृत्य' की विधि कहते हैंदिनकृत्य - मूलगाथा - ५ नवकारेण विबुद्धो, सरेइ सो सकुलधम्मनियमाई। पडिक्कमिअसुई पूइअ,गिहे जिणं कुणइ संवरणं ।।५।। भावार्थ : 'नमो अरिहंताणं' इत्यादि नवकार की गणनाकर जागृत हुआ श्रावक अपने कुल, धर्म, नियम इत्यादि का चिन्तन करे। ___ गाथा पूर्वार्ध तात्पर्यार्थ प्रथम श्रावक को निद्रा का त्याग करना। पिछली रात्रि में एक प्रहर रात्रि रहने पर उठना। ऐसा करने में इस लोक तथा परलोक संबंधी कार्य का यथावत् विचार होने से उस कार्य की सिद्धि तथा अन्य भी अनेक गुण हैं और ऐसा न करने से इस लोक व परलोक सम्बन्धी कार्य की हानि आदि बहुत दोष हैं। लोक में भी कहा है कि कम्मीणां धणं संपडइँ, धम्मीणां परलोअ निहिं।
SR No.002285
Book TitleShraddhvidhi Prakaranam Bhashantar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherJayanandvijay
Publication Year2005
Total Pages400
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy