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________________ 62 श्राद्धविधि प्रकरणम् स्खलित दृष्टि में आवे तो भी साधुपर से राग कम न करे और जैसे माता अपने पुत्र पर वैसे ही मुनिराज पर अतिशय हित के परिणाम रखे वह श्रावक माता-पिता के समान है १। जो श्रावक साधु के ऊपर मन में तो बहुत राग रखे पर बाहर से विनय करने में मंद आदर दिखावे, परन्तु यदि कोई साधु का पराभव करे तो उस समय शीघ्र वहां जाकर मुनिराज को सहायता करे वह श्रावक बंधु के समान है २। जो श्रावक अपने को मुनि के स्वजन से भी अधिक समझे, तथा कोई कार्य में मुनिराज इसकी सलाह न ले तो मन में अहंकार से रोष करे, वह श्रावक मित्र समान है ३। जो भारी अभिमानी श्रावक साधु के छिद्र देखा करे, प्रमाद वश हुई उनकी भूल हमेशा कहा करे तथा उनको तृणवत् समझे वह श्रावक सपत्नी समान है ४। दूसरे चार प्रकारों में गुरु का कहा हुआ सूत्रार्थजैसा कहा हो वैसा ही उसके मन में उतरे उस सुश्रावक को सिद्धांत में आरिसा (दर्पण) समान कहा है । जो श्रावक गुरु के वचनों का निर्णय न करने से पवन जैसे ध्वजा को इधर-उधर करता है वैसे ही अज्ञानी पुरुष उन्हें इधर-उधर घुमावें वह ध्वजासमान है २। गीतार्थ मुनिराज चाहे कितना ही समझा। परन्तु जो अपना हठ न छोड़े और साथ ही मुनिराज पर द्वेष भाव न रखे वह श्रावक स्तंभ के समान है ३। जो श्रावक सद्धर्मोपदेशक मुनिराज पर भी 'तू उन्मार्ग दिखानेवाला, मूर्ख, अज्ञानी तथा मंदधर्मी है' ऐसे निन्द्य वचन कहे, वह श्रावक खरंटक (विष्ठादिक) के समान है ४। जैसे पतला (विष्ठादि अशुचि) द्रव्य, स्पर्श करनेवाले मनुष्य को भी लग ही जाता है वैसे उत्तम उपदेश करनेवाले को भी जो दोष दे वह खरंटक (विष्ठादिक) के समान कहलाता है। निश्चयनय मत से सपत्नीसमान व खरंटकसमान इन दोनों को मिथ्यात्वी (द्रव्यश्रावक) समझना चाहिए और व्यवहारनय से श्रावक कहलाते हैं,कारण कि वे जिन मंदिरादिक में जाते हैं। श्रावक शब्द का अर्थ : स्रवन्ति यस्य पापानि, पूर्वबद्धान्यनेकशः। आवृतश्च व्रतैर्नित्यं, श्रावकः सोऽभिधीयते ॥१॥ संपत्तदसणाई, पइदिअहं जइजणा सुणेई । सामायारिं परमं, जो खलु तं सावगं बिति ।।२।। श्रद्धालुतां श्राति पदार्थचिन्तनाद्धनानि पात्रेषु वपत्यनारतम्। किरत्यपुण्यानि सुसाधुसेवनादतोऽपि तं श्रावकमाहुरुत्तमाः ।।३।। यद्वा-श्रद्धालुतां श्राति शृणोति शासनं, दानं वपत्याशु वृणोति दर्शनम्। कृन्तत्यपुण्यानि करोति संयम, तं श्रावकं प्राहुरमी विचक्षणाः ॥४॥ श और स इन दोनों को समान मानकर श्रावक शब्द का अर्थ इस प्रकार होता हैप्रथम सकार मानकर 'स्रवति अष्ट प्रकारं कर्मेति श्रावकः' अर्थात् दान, शील, तप, भावना इत्यादि शुभयोग से आठ प्रकार के कर्म का त्याग करे, वह श्रावक है। दूसरा
SR No.002285
Book TitleShraddhvidhi Prakaranam Bhashantar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherJayanandvijay
Publication Year2005
Total Pages400
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size8 MB
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