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________________ 56 श्राद्धविधि प्रकरणम् जाने से विचार करने लगा कि, 'हाय हाय! निश्चय ही मेरा राज्य गया, मैं क्यों यहां आया? अब क्या करना चाहिए?' इस तरह विचारकर वह बहुत घबराया। कुछ समय के बाद जब तूने उसे छोड़ा तब उसके जीव में जीव आया। उस समय हंसी में भी तूने बहुत दारुणकर्म संचित किया। उसीके उदय से अभी तुझे भी दुःसह राज्य वियोग हुआ है। गर्विता इव कुर्वन्ति, जीवाः सांसारिकी क्रियाम्। तद्विपाके तु दीनाः स्युः, फालभ्रष्टप्लवङ्गवत् ॥१।। ८६१ ।। मनुष्य अहंकार से संसार संबन्धी क्रियाएं तो करते हैं, किन्तु उससे संचित कर्म का उदय जब होता है तब कूदते-कूदते छलांग चूककर गिर जानेवाले बन्दर की तरह अंत में दीन होते हैं। राजर्षि मृगध्वज यद्यपि चन्द्रशेखर का संपूर्ण हाल जानते थे किन्तु उस सम्बन्ध एक भी शब्द नहीं बोले । कारण कि, शुकराज ने वह बात पूछी ही नहीं थी । केवली महाराज पूछे बिना ऐसी बात कभी नहीं कहते। जगत् में सभी जगह उदासीनता रखना यही केवलज्ञान का फल है। तदनन्तर शुकराज ने बालक की तरह पिता के पांव में गिरकर पूछा कि, 'हे तात! आपका दर्शन हो जाने पर भी मेरा राज्य जावे यह कैसी बात है ? साक्षात् धन्वन्तरि वैद्य के प्राप्त होने पर भी यह रोग का कैसा उपद्रव ? प्रत्यक्ष कल्पवृक्ष के पास होते हुए यह कैसी दरिद्रता ? सूर्य के उदय हो जाने पर यह कैसा अंधकार ? इसलिए हे प्रभो ! मुझे ऐसा कोई उपाय बताइये कि किसी भी अंतराय के बिना शीघ्र वह राज्य वापस मुझे मिल जाय.' इत्यादि वचनों से शुकराज ने बहुत आग्रह किया तब राजर्षि मृगध्वज बोले, 'दुःसाध्य कार्य भी धर्मकृत्य से सुसाध्य होता है। तीर्थ शिरोमणि ऐसा विमलाचल यहां से पास ही है। वहां जाकर श्री आदिनाथ भगवान् की भक्ति से वन्दनापूर्वक स्तुति कर। तथा इस पर्वत की गुफा में छः मास तक परमेष्ठी मंत्र का जाप करे तो वह मंत्र स्वतंत्रता से सर्व प्रकार की सिद्धियों का देनेवाला होता है। चाहे कैसा ही शत्रु हो तो वह भी भयभीत सियाल की तरह अपना जीव लेकर भाग जाता है और उसके सर्व कपट निष्फल हो जाते हैं। जिस समय गुफा में प्रकाश हो तब तू समझ लेना कि 'कार्यसिद्धि' हो गयी। मन में यह निश्चय कर ले कि कैसा ही दुर्जय शत्रु हो, तो भी यह उसके जीतने का उपाय है।' केवली के ये वचन सुनकर शुकराज को ऐसा आनन्द हुआ जैसा कि किसी पुत्रहीन पुरुष को पुत्रप्राप्ति की बात सुनकर होता है। तत्पश्चात् वह विमान में बैठकर विमलाचल पर गया। वहां योगीन्द्र की तरह निश्चल रहकर उसने परमेष्ठि मंत्र का जाप किया। केवली के वचनानुसार छः मास के अनन्तर चारों ओर उसने प्रकाश देखा, मानो उस समय उसका प्रताप उदय हुआ हो। उसी समय चन्द्रशेखर पर प्रसन्न हुई गोत्रदेवी निष्प्रभाव हो उससे कहने लगी कि 'हे चन्द्रशेखर ! तेरा शुक-स्वरूप चला गया इसलिए अब तू शीघ्र अपने स्थान को चला जा' यह कहकर गोत्रदेवी अदृश्य हो
SR No.002285
Book TitleShraddhvidhi Prakaranam Bhashantar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherJayanandvijay
Publication Year2005
Total Pages400
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size8 MB
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