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________________ श्राद्धविधि प्रकरणम् 55 सभा में, व्यापार में, शत्रुके सन्मुख, ससुर के घर, स्त्री के पास और राज्य दरबार में आडम्बर की ही पूजा होती है। विद्याबल से संपूर्ण और ऐश्वर्य परिपूर्ण होते हुए भी राज्य जाने की चिन्ता से दुःखित वास्तविक शुकराज ने शून्यस्थल में निवास करके छः मास व्यतीत किये। बड़े खेद की बात है कि बड़े-बड़े मनुष्यों को भी ऐसा दुस्सह उपद्रव भोगना पड़ता है। अथवा सब दिन किसको समान सुख के दाता होते हैं। कहा है कि कस्य वक्तव्यता नास्ति? को न जातो मरिष्यति? केन न व्यसनं प्राप्तं? कस्य सौख्यं निरन्तरम्? ।।१।। ८४६।। कौन दोष का पात्र नहीं?जन्म पाकर कौन मृत्यु को प्राप्त नहीं होता? संकट किस पर नहीं आया? तथा किसे निरन्तर सुख मिलता है? एक समय सौराष्ट्र देश में भ्रमण करते हुए शुकराज का विमान पर्वत से रुके हुए नदी के पूर की तरह आकाश में ही रुक गया। व्याकुल चित्त ऐसा शुकराज को यह बात ऐसी दुखदायी प्रतीत हुई कि जैसे जले हुए अंगपर विस्फोटक (घाव) हुआ हो,मिरे हुए मनुष्य पर और भी प्रहार हुआ हो, अथवा घाव पर नमक पड़ा हो। क्षणमात्र में वह विमान से उतरकर एकाएक रुक जाने का कारण देखने लगा, इतने में ही उसने केवलज्ञान पाये हुए अपने पिता राजर्षि मृगध्वज को देखा। मेरु पर्वत पर जैसे मंदार कल्पवृक्ष शोभता है वैसे ही वे राजर्षि सुवर्णकमल पर सुशोभित थे, तथा देवता उनकी सेवा में उपस्थित थे। शुकराज ने सत्य भक्तिपूर्वक उनको वन्दना करके संतोष पाया, तथा सजलनेत्र होकर शीघ्र उनको अपने राज्यहरण का संपूर्ण वृत्तान्त कह सुनाया। पित्रादेः प्रियमित्रस्य स्वामिनः स्वाश्रितस्य वा। निवेद्यापि निजं दुःखं, स्यात्सुखीव सकृज्जनः ॥१॥ ८५२।। मनुष्य अपने पितादिक, प्रियमित्र, स्वामी अथवा आश्रित इनमें से चाहे किसी के भी संमुख अपनी दुःख कहानी कहकर क्षणभर अपने जीवको सुखी मानता है। राजर्षि मृगध्वज ने कहा-'यह तो पूर्वकर्म का विपाक है।' तब शुकराज ने पूछा, 'मैंने पूर्वभव में ऐसा कौनसा कर्म उपार्जन किया था?' केवली राजर्षि बोले-'जितारि राजा के भव से पूर्वभव में तू स्वभाव से भद्रक तथा न्यायनिष्ठ, श्रीग्राम नामक गांव में ठाकुर था। पिता द्वारा हिस्से करके दिये हुए एक गांव को भोगनेवाला तेरा एक सौतेला भाई था, वह स्वभाव से ही बहुत कायर था। एक समय वह श्रीग्राम को आकर वापस अपने गांव को जाता था, इतने में ही तूने हंसी से उसे बंदीवान के समान अपने अधीनकर कहा कि, 'तू सुखपूर्वक यही रह, तुझे गांव की चिन्ता करके क्या करना है? बड़े भाई के होते हए छोटे भाई को व्यर्थ चिन्ता करने की क्या आवश्यकता है?' वह एक तो सौतेला भाई था दूसरा स्वभाव से ही कायर था। ऐसा संयोग मिल
SR No.002285
Book TitleShraddhvidhi Prakaranam Bhashantar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherJayanandvijay
Publication Year2005
Total Pages400
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size8 MB
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