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श्राद्धविधि प्रकरणम् 'दीक्षा की सम्मति' यही मात्र मूल्य लिया। राज्याभिषेक के उत्सव के अनन्तर रात्रि हुई। युक्त ही है,राजा (चन्द्र तथा पृथ्वी का पालक) जब नवीन उदय से सुशोभित होता है तब रात्रि प्रफुल्लित हो इसमें आश्चर्य ही क्या है? यद्यपि चारों तरफ से घोर अंधकार फैल रहा था तथापि ज्ञानरूपी उद्योत के उज्ज्वल होने से जिसके चित्त में लेशमात्र भी अन्धकार नहीं ऐसा मृगध्वज राजा मन में विचार करने लगा कि, 'अब प्रातःकाल होगा तथा मैं दीक्षा ग्रहणकर आनन्द पाऊंगा? अतिचार रहित सुन्दर चारित्र की चर्या में मैं अब चलूंगा? तथा सकल कर्मों का क्षय करूंगा?' इस प्रकार उत्कर्ष की अन्तिम सीमा पर पहुंचे हुए और शुभध्यान में तल्लीन राजा मृगध्वज ने ऐसी शुभभावनाओं का ध्यान किया कि जिससे प्रातःकाल होते ही रात्रि के साथ-साथ घनघाती कर्मों का भी अत्यन्त क्षय हो गया और उनके (कर्म) साथ कदाचित् स्पर्धा होने से अनायास ही उसे केवलज्ञान भी उत्पन्न हो गया। सांसारिक कृत्य करने के लिए चाहे कितना ही प्रयत्न किया जाय वह भी निष्फल होता है परन्तु आश्चर्य की बात है कि दीक्षा के समान धर्मकृत्य की तो केवल शुभभावना करने से ही मृगध्वज राजा की तरह केवलज्ञान उत्पन्न होता है। सर्वज्ञ तथा निर्ग्रन्थ मुनिराजों में शिरोमणि हुए उस मृगध्वज राजा को तुरन्त साधुवेष देनेवाले देवताओं ने भारी उत्सव किया। उस समय चकित तथा आनन्दित होकर शुकराज इत्यादि लोग वहां आये राजिर्ष ने भी अमृत के समान इस प्रकार उपदेश दिया—'हे भव्य प्राणियों! साधुधर्म तथा श्रावकधर्म ये दो संसाररूपी समुद्र में सेतूबंध (पाल) हैं। जिसमें प्रथम सीधा किन्तु कठिन मार्ग है और दूसरा टेढा किन्तु सुखपूर्वक जाने योग्य मार्ग है। इसमें जिस मार्ग से जाने की इच्छा हो उस मार्ग से जाओ।'
- यह उपदेश सुन कमलमाला, सद्धर्मरूपी समुद्र में हंस के समान हंसराज और चन्द्राङ्ग इन तीनों व्यक्तियों को प्रतिबोध हुआ और दीक्षा लेकर क्रमशः सिद्ध हो गये। शुकराज आदि सर्व लोगों ने साधुधर्म पर श्रद्धा रखकर शक्ति के अनुसार दृढ़ समकितपूर्वक बारह व्रत ग्रहण किये। राजर्षि मृगध्वज तथा चन्द्राङ्ग ने विरागी होने से असती चन्द्रवती का कुकर्म कहीं भी प्रकट नहीं किया। दृढ़ वैराग्य होने पर परदोष प्रकट करने से प्रयोजन ही क्या है? भवाभिनन्दी जीव ही केवल परनिन्दा करने में निपुण होते हैं। स्वयं अपनी स्तुति करना तथा परनिन्दा करना यह निर्गुणी मनुष्य का लक्षण है व अपनी निन्दा करना तथा परस्तुति करना ये गुणी मनुष्यों के लक्षण हैं, केवलज्ञान से सूर्य समान राजर्षि मृगध्वज अपने चरणों से पृथ्वी को पवित्र करने लगे और इन्द्र समान पराक्रमी शुकराज राज्य कारभार चलाने लगा।
महान् अन्यायी चन्द्रशेखर पुनः चन्द्रवती पर स्नेह तथा शुकराज पर द्वेष रखने लगा। मन में अतिशय क्लेश होने से एकबार उसने राज्य की अधिष्ठात्रि गोत्रदेवी की बहुत समय तक आराधना की। विषयान्ध पुरुष के कदाग्रह को धिक्कार है! अधिष्ठायिका देवी ने प्रकट होकर चन्द्रशेखर से कहा कि, 'हे वत्स! वर मांग!' चन्द्रशेखर ने कहा,