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श्राद्धविधि प्रकरणम्
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लिए सत्यप्रिय चन्द्राङ्ग का मन बहुत ही आतुर हुआ । उसने यशोमती के वचन का तिरस्कार किया। सच्चे माता-पिता की परीक्षा करने तथा उनको देखने के लिए वहां से निकला। वह आज तुझे आकर मिला । यशोमती बगुले की तरह पति तथा पुत्र से भ्रष्ट हो गयी। जिससे उसे वैराग्य हुआ, दीक्षा लेने का विचार किया, परन्तु जैन साध्वी का योग न मिलने से वह योगिनी हो गयी, मैं वही यशोमती हूं। भव की उत्तम भावनाओं का मनन करने से मुझे शीघ्र कितना ही ज्ञान प्राप्त हुआ, इससे मैं यह बात जानती हूं। उसी चतुर यक्ष ने आकाशवाणी के रूप में मुझे सर्व वर्णन कहा था सो यथावत् मैंने तुझे कह सुनाया' यह अयुक्त बात सुनकर राजा को बहुत क्रोध उत्पन्न हुआ, साथ ही मन में बहुत ही खेद हुआ, अपने घर का ऐसा हाल सुनकर कौन दुखी न हो? पश्चात् सत्यवादिनी योगिनी ने राजा को प्रतिबोध करने के हेतु योगिनी की भाषा की रीति के अनुसार मधुरवचन से कहा
कवण केरा पुत्र मित्रारे, कवण केरी नारी ।
मुहिओ मोहिओ मेरी, मूढ भणइ अविचारी ॥ १ ॥
जोगिन जोगी हो हो हो हो जाइं न जोग विचारा ।
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मल्हिअ मारग आदरि, मारग जिम पामिए भवपारा ||२|| जो० अतिहिं गहना अतिहिं कूड़ा, अतिहिं अथिर संसारा ।
भामओ छाँडी योगजु मांडी, कीज जिनधर्मसारा ||३|| जो० मोहिइं मोहिओ कोहिझं खोहिओ, लोहिइं वाहिओ धाई। मुहिआ बहुं भवि अवकारणि, मूरख दुःखियो थाइ || ४ || जो० एक काजि बि खंचे, त्रिणि संचे च्यारि वारे ।
पांचइ पाले छइ टाले, आपिइ आप उत्तारे ||५|| जो० ।। ७८० ।।
योगिनी की यह बात सुनकर राजा मृगध्वज का चित्त शांत और विरागी हो गया। पश्चात् योगिनी की आज्ञा लेकर वह अपने पुत्र चन्द्राङ्ग को साथ ले अपने नगर के उद्यान में गया। चन्द्राङ्ग को भेजकर शुकराज, हंसराज तथा मंत्री आदि को बुलवाया और संसार से उद्विग्न तथा तत्त्व में निमग्न होकर सर्व परिवार को कहा कि, 'मैं अब तपस्या करूंगा, कारण कि दास तुल्य इस संसार में मेरा बहुत ही पराभव हुआ। अब शुकराज को राज्य दे देना, अब मैं घर नहीं आऊंगा।' मंत्री आदिक बोले–' हे महाराज! घर पधारिये। वहां चलने में क्या दोष है? मन में मोह न हो तो घर भी जंगल ही के समान है, और जो मोह हो तो जंगल भी घर की तरह (कर्म बंधन करनेवाला) है। सारांश यह है कि, जीव को बन्धन में डालनेवाला केवल मोह ही है।' इस प्रकार आग्रह करने से राजा परिवार सहित घर आया। उसे देखते ही चन्द्रशेखर को यक्ष का वचन याद आया और शीघ्र वह वहां से भागकर अपने नगर को जा पहुंचा। राजा मृगध्वज ने महोत्सव के साथ शुकराज का राज्याभिषेक किया और पुत्र के पास से