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श्राद्धविधि प्रकरणम् किया, तथा यशोमती नामक एक राजकन्या से चन्द्रशेखर का विवाह किया। पूर्वभव के अभ्यास से चंद्रशेखर व चंद्रवती इन दोनों का परस्पर बहुत अनुराग हो गया तथा कामवासना से पूर्वभव के अनुसार सम्बन्ध करने की इच्छा करने लगे, धिक्कार है ऐसे सम्बन्ध को! इस संसार में जीवों को कैसी-कैसी नीच वासनाएं उत्पन्न होती हैं कि जिनका मुंह से उच्चारण भी नहीं किया जा सकता। जिसमें चंद्रशेखर व चन्द्रवती के समान उत्तम पुरुषों को भी ऐसा कुमार्ग सूझता है। हे राजन्! जिस समय तू एकाएक गांगलि ऋषि के आश्रम को चला गया, उस समय अपना इष्ट मनोरथ पूर्ण करने के लिए चन्द्रवती ने हर्ष से चन्द्रशेखर को बुलवाया। वह तेरा राज्य हस्तगत करने के लिए ही आया था परन्तु उत्तंभक (मणिविशेष) से जैसे अग्नि दाह नहीं कर सकती वैसे ही तेरे पुण्य से वह अपना स्वार्थ सिद्ध नहीं कर सका। पश्चात् वे दोनों (चन्द्रवती व चन्द्रशेखर) तुझे मुग्ध समझकर तुझे ठगने के लिए नाना प्रकार के युक्तिपूर्ण वचनों से समझाते रहे। एक समय चन्द्रशेखर ने कामदेव नामक यक्ष की आराधना की। उसने प्रकट होकर कहा कि, 'चन्द्रशेखर! मैं तेरा कौनसा इष्ट कार्य करूं?' चन्द्रशेखर बोला, 'तू शीघ्र मुझे चन्द्रवती दें' यह सुन यक्ष ने एक अंजन देकर उससे कहा कि, 'मृगध्वज राजा चन्द्रवती के पुत्र को प्रत्यक्ष नहीं देखेगा तब तक चन्द्रवती के साथ विलास करते इस अदृश्यकरण अंजन से तुझे कोई नहीं देख सकेगा। जब मृगध्वज चन्द्रवती के पुत्र को देखेगा तब सब बात प्रकट हो जायगी।' यक्ष की यह बात सुनकर प्रसन्न हो चन्द्रशेखर चन्द्रवती के महल में गया। वहां अंजनयोग से अदृश्य रहकर बहुत समय तक काम-क्रीड़ा करता रहा। उससे चन्द्रवती को चन्द्राङ्ग नामक पुत्र उत्पन्न हुआ। यक्ष के प्रभाव से यह हाल किसी को ज्ञात न हो सका। तथा उस बालक को ले जाकर चन्द्रशेखर ने अपनी स्त्री यशोमती को सुपुर्द किया। यशोमती अपने ही गर्भ से उत्पन्न हुए पुत्र की तरह उसका लालन-पालन करने लगी। स्त्रियों में स्नेह बहुत ही होता है। जब वह बालक चन्द्राङ्ग तरुणावस्था को पहुंचा तो पतिवियोग से पीड़ित यशोमती उसकी सुन्दर छबी देखकर विचार करने लगी कि, "जिसका पति हमेशा परदेश में रहता है वह स्त्री जैसे पति का मुंह नहीं देख सकती उसी प्रकार चन्द्रवती में आसक्त निज पति चन्द्रशेखरको मैं भी नहीं देख सकती, अतएव अपने हाथ से लगाये हुए वृक्ष का फल जैसे स्वयं ही खाते हैं उसी प्रकार स्वयं पालन किये हुए इस सुन्दर तरुण पुत्र को ही पति मानकर पालन करने का फल प्राप्त करूं।' यह विचारकर विवेक तथा चतुरता कोकोने में पटक उसने पुत्र से कहा कि, 'हे भद्र! जो तू मुझे अंगीकार करेगा तो तुझे सम्पूर्ण राज्य मिलेगा और मैं भी तेरे वश में रहुंगी' ऐसे वचन सुनकर अकस्मात् हुए भयंकर प्रहार से पीड़ित मनुष्य की तरह दुःखित होकर चन्द्राङ्ग कहने लगा, 'हे माता! कान से सुने भी नहीं जा सकते तथा मुख से बोले भी नहीं जा सकते ऐसे अयुक्त वचन क्यों बोलती है?' यशोमती कहने लगी कि, 'हे सुन्दर! मैं तेरी माता नहीं हूँ, बल्कि मृगध्वज राजा की रानी चन्द्रवती तेरी माता है। यह सुन सत्य बात जानने के