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________________ 53 श्राद्धविधि प्रकरणम् 'हे देवि! शुकराज का राज्य मुझे दे' देवी ने कहा, 'जैसे सिंह के संमुख हरिणी का कुछ भी पराक्रम नहीं चलता वैसे ही दृढ़ सम्यक्त्वधारी शुकराज के सामने मेरा पराक्रम नहीं चल सकता।' चन्द्रशेखर बोला, 'जो तू प्रसन्न हुई हो और मुझे वर देती हो तो बल से अथवा छल से भी मेरा उपरोक्त कार्य कर।' चन्द्रशेखर की भक्ति तथा उक्ति से संतुष्ट होकर देवी ने कहा कि, 'यहां तो छल का ही कार्य है, बल का नहीं। कोई समय जब शुकराज किसी को कहे बिना बाहर गांव जाय तब तू शीघ्र उसके राजमहल में जाना, मेरे प्रभाव से तेरा स्वरूप ठीक शुकराज के सदृश हो जायगा, उससे तू यथेष्ट प्रकार से शुकराज का राज्य भोग सकेगा।' यह कह देवी अदृश्य हो गयी। चन्द्रशेखर ने बड़े संतोष से चन्द्रवती को यह वृत्तान्त कह सुनाया। ___ एक समय तीर्थयात्रा करने को मन उत्सुक होने से शकराज ने अपनी दोनों रानियों से कहा कि, 'हे प्रियाओ! मैं विमलाचल तीर्थ को वंदन करने के हेतु उस आश्रम पर जाने का विचार करता हूं।' उन्होंने कहा कि, 'हम भी साथ चलेंगी, ताकि हमको भी अपने माता-पिता का मिलाप हो जायेगा।' ____ तदनंतर शुकराज अपनी दोनों स्त्रियों को साथ लेकर किसीको भी न कहते देवता की तरह विमान में बैठकर विदा हुआ, यह हाल किसीको भी ज्ञात न हुआ। चन्द्रवती का तो चित्त इसी ओर लगा हुआ था, अतः मालूम होते ही उसने चन्द्रशेखर को खबर दी। वह भी शीघ्र ही वहां आया और आते ही उसका स्वरूप शुकराज के समान हो गया, कृत्रिम रूपधारी सुग्रीव की तरह उस दांभिक को सब मनुष्य शुकराज ही समझने लगे। रात्रि के समय वह चिल्लाकर उठा तथा कहने लगा कि, 'अरे दोड़ो, दोड़ो! यह विद्याधर मेरी दोनों स्त्रियों को हरणकर ले जाता है। यह सुन मंत्री आदि सब लोग हाहाकार करते वहां आये तथा कहने लगे कि, 'हे प्रभो! आपकी वे सर्व विद्याएं - कहां गयी?' चन्द्रशेखर ने दुःखी मनुष्य की तरह मुख मुद्रा करके कहा कि, 'मैं क्या करूं? उस दुष्ट विद्याधर ने जैसे यम प्राण हरण करता है वैसे ही मेरी सर्व विद्याएं हरण : कर ली', तब लोगों ने कहा—'हे महाराज! वे विद्याएं तथा स्त्रियां भले ही चली गयी, आपका शरीर कुशल है इसीसे हम तो संतुष्ट हैं।' इस प्रकार पूर्णकपट से सब राजकुल को ठगकर चन्द्रवती पर प्रीति रखता हुआ. चन्द्रशेखर राज्य करने लगा। . उधर शुकराज विमलाचल तीर्थ को वन्दनाकर श्वसुर के नगर में गया, तथा कुछ दिन वहां रहकर अपने नगर के उद्यान में आया। अपने कुकर्म से शंकित चन्द्रशेखर झरोखे में बैठा था इतने में ही शुकराज को आता हुआ देखकर आकुल व्याकुल हुआ और हाहाकारकर मंत्री को कहने लगा कि, 'जिसने मेरी दोनों स्त्रियां व विद्याएं हरण की थी वही दुष्ट विद्याधर मेरा रूप करके मझपर उपद्रव करने को आ रहा है अतः मधुर वचन से किसी भी प्रकार उसे वहीं से वापस करो। बलवान् पुरुष के संमुख शान्ति से वर्ताव करना यही अपना भारी बल समझना चाहिए।' .
SR No.002285
Book TitleShraddhvidhi Prakaranam Bhashantar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherJayanandvijay
Publication Year2005
Total Pages400
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size8 MB
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