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________________ 48 श्राद्धविधि प्रकरणम् नामक मंत्री था। वह राजा कठिन अभिग्रह लेकर तीर्थ यात्रा को निकला। काश्मीर देश के अंदर यक्ष के स्थापित किये हुए श्री विमलाचल तीर्थ पर उसने जिनेश्वर भगवान् को वन्दना की। विमलपुर की स्थापनाकर बहुत समय तक वहां रहा और कालक्रम से मृत्यु को प्राप्त हुआ। तत्पश्चात् सिंह मंत्री सर्व राज्य परिवार तथा नगरवासियों को लेकर भद्दिलपुर की ओर चला। सत्य है कि जननी जन्मभूमिश्च, निद्रा पश्चिमरात्रिजा। इष्टयोगः सुगोष्ठी च दुर्मोचाः पञ्च देहिभिः ।।१।। ७१५।। जननी, जन्मभूमि, पिछली रात्रि की नींद, इष्ट वस्तु का संयोग तथा मनोहर कहानी इन पांच बातों का त्याग करना बहुत ही कठिन है। आधा मार्ग चलने के बाद मंत्री को स्मरण आया कि अपनी एक श्रेष्ठ वस्तु वहां रह गयी है, तब मंत्री ने एक दूत से कहा कि, 'तू शीघ्र विमलपुर जा और अमुक वस्तु ले आ।' दूत ने उत्तर दिया कि, 'शून्य नगर में मैं अकेला कैसे जाऊं?' इस पर मंत्री ने रोष में आकर जबरदस्ती से उसे भेजा। उस दूत ने विमलपुर में आकर देखा कि, वह पदार्थ कोई लेकर चला गया है। जब वह खाली हाथ लौटकर आया तो मंत्री ने और भी क्रोधित होकर उसे खूब मारा तथा मूर्छितावस्था में ही मार्ग में छोड़ आगे को प्रस्थान किया। लोभ से मनुष्य को कितनी मूर्खता प्राप्त होती है? धिक्कार है ऐसे लोभ को। क्रमशः मंत्री सपरिवार भद्दिलपुर में पहुंचा। इधर शीतल पवन के लगने से उस दूत को भी चैतन्यता आयी। स्वार्थरत सब साथियों को गये जानकर वह मन में विचार करने लगा कि, 'प्रभुता के अहंकार से उन्मत्त इस अधम मंत्री को धिक्कार है!' कहा है कि चौर–चिल्लकाई गंधिअ भट्टा य विज्जपाहुणया। वेसा धूअ नरिंदा परस्स पीडं न याणंति ।।१।। ७२३।। चोर, बालक, किराने की दूकानवाला (अत्तार), रणयोद्धा, वैद्य, पाहुना, वेश्या, कन्या तथा राजा ये नौ व्यक्ति परदुःख को नहीं समझते हैं। इस प्रकार व्याकुल होकर मार्ग न जानने से वह वन में भटकते-भटकते क्षुधा तथा तृषा से बहुत पीड़ित हुआ और मन में आर्त-रौद्रध्यानकर मृत्यु को प्राप्त हुआ। उसी दूत का जीव भद्दिलपुर के जंगल में एक भयानक सर्प हुआ। एक समय उसी सर्प ने वन में भ्रमण करते हुए सिंहमंत्री को काटा जिससे वह मर गया, सर्प भी मरकर नरक में गया। तथा नरक से निकलकर तू वीरांग राजा का पुत्र हुआ है। मंत्री का जीव विमलाचल पर्वत पर जल की बावड़ी में हंस का बच्चा हुआ, उसे विमलाचल के दर्शन से जातिस्मरण ज्ञान उत्पन्न हुआ। उसने पूर्व भव में मैंने सम्यग् रीति से जिनेश्वर भगवान् की आराधना नहीं की इससे मुझे तिर्यंच योनि मिली है, यह विचारकर चोंच में फूल ला-लाकर भगवंत की पूजा करनी शुरू की, दोनों पंखों में जल भरकर उसने भगवान् को न्हवण कराया इत्यादि आराधना से वह मृत्यु को प्राप्तकर सौधर्म-देवलोक में देवता हुआ तथा वहां से च्यवकर इस समय राजा मृगध्वज के यहां हंसराज नाम का पुत्र हुआ है।
SR No.002285
Book TitleShraddhvidhi Prakaranam Bhashantar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherJayanandvijay
Publication Year2005
Total Pages400
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size8 MB
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