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श्राद्धविधि प्रकरणम्
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एकदम भयंकर कोलाहल उत्पन्न हुआ। राजा के पूछने पर किसी सरदार ने तपासकर कहा कि, 'हे प्रभो सारंगपुर पत्तन में वीरांग नामक राजा है उसका शूर नामक शूरवीर पुत्र जैसे हाथी- हाथी पर धावा करता है वैसे ही पूर्व वैर से क्रोध सहित हंसराज पर चढ़ आया है।' यह सुन राजा मन में तर्क करने लगा कि, 'मैं राज्य करता हूं, शुकराज व्यवस्था करता (युवराज) है, वीरांग मेरा सेवक (मांडलिक) है, ऐसा होते हुए शूर और हंस का परस्पर वैर होने का क्या कारण है?' यह सोचकर उत्सुक होकर उसने शुकराज व हंसराज को साथ ले शूर का सामना करने के लिए ज्यों ही कदम बढ़ाया कि इतने में एक सेवक ने आ निवेदन किया कि, 'हे राजन्! पूर्वभव में हंसराज ने शूर का पराभव किया था उस वैर से हंसराज के संमुख युद्ध की याचना करता है।' यह सुन राजा मृगध्वज और शुकराज युद्ध की तैयारी करने लगे परन्तु शूरवीर हंसराज उनको छोड़ स्वयं तैयार होकर युद्धस्थल में जा पहुंचा। शूर भी बहुत से शस्त्रास्त्रों से सुसज्जित हो एक भयंकर रथ पर आरूढ़ होकर रणांगण में आया। अर्जुन और कर्ण के समान उन दोनों वीरों का भयंकर शस्त्र-युद्ध सब लोकों के संमुख बहुत ही आश्चर्यकारी हुआ' । श्राद्ध-भोजी ब्राह्मण जैसे भोजन करने में नहीं थकते वैसे ही दोनों रणलोलुपी वीर बहुत देर तक नहीं थके । परस्पर समान वीर समान उत्साही तथा समान बलशाली दोनों राजकुमारों को देखकर विजय लक्ष्मी भी क्षण मात्र संशय में पड़ गयी कि किसके गले में जयमाला डालूं ? इतने में ही जैसे इन्द्र पर्वत की पंख तोड़ता है उस तरह हंसराज ने अनुक्रम से शूर के सब शस्त्र तोड़ दिये। इससे शूर मदोन्मत हाथी की तरह क्रोधित हो वज्र के समान मुट्ठी बांधकर हंसराज को मारने दौड़ा। यह देख राजा मृगध्वज चौंककर शुकराज की ओर देखने लगा । चतुर शुकराज ने शीघ्र ही पिता का अभिप्राय समझकर अपनी विद्याएं हंसराज के शरीर में पहुंचाई। हंसराज ने इन विद्याओं के बल से क्षण मात्र में शूर को उठा लिया और बहुत से आक्षेपयुक्त वचन कहकर गेंद की तरह जोर से फेंका। शूर अपनी सेना को लांघ एक किनारे गिरा और मूर्छित हो गया। सेवकों के बहुत प्रयत्न करने पर उसने बाह्य चैतन्यता पायी तथा कोप का प्रगट फल देखकर हृदय में भी चैतन्य हुआ; और मन में विचार करने लगा कि, 'मैंने व्यर्थ क्रोध वश अपना पराभव कराया तथा रौद्रध्यान से कर्मबन्धनकर अनन्त दुःख का देनेवाला संसार भी उपार्जित किया, अतः मुझे धिक्कार है।' इस प्रकार अपनी आत्मा की शुद्धिकर व वैर बुद्धि का त्यागकर शूर ने मृगध्वज राजा तथा उसके दोनों पुत्रों से क्षमा मांगी। चकित हो राजा मृगध्वज ने शूर से पूछा कि, 'तू पूर्वभव का वैर किस प्रकार जानता है?' शूर ने उत्तर दिया कि, 'हमारे नगर में श्रीदत्त केवली आये थे। मैंने उन्हें अपना पूर्व भव पूछा था, उस पर उन्हों ने बताया कि, 'जितारि नामक भद्दिलपुर का राजा था। हंसी और सारसी नामक उसकी दो रानियां थीं, और सिंह
१. अर्जून और कर्ण बाद में हुए हैं फिर भी कथा में ऐसी उपमा दी जा सकती है।