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________________ श्राद्धविधि प्रकरणम् 43 के समान गंभीर शब्दों से आदरपूर्वक पिता को कहा कि, 'हे तात! मैं तीर्थरक्षा करने जाऊंगा।' यह सुन माता-पिता ने कहा, 'तेरे वचनों की हम बलिहारी लेते हैं।' ऋषि बोले-'अहा! बाल्यावस्था में भी यह कितना आश्चर्यकारी क्षत्रियतेज है? सत्य है सूर्य की तरह सत्पुरुषों का तेज भी अवस्था की अपेक्षा नहीं रखता।' राजा मगध्वज ने कहा कि, 'बालक हंसराज कैसे भेजा जाय? बालक के शक्तिमान होने पर भी पुत्रस्नेह वश माता-पिता के मन में तो शंका बनी ही रहती है। पुत्र स्नेह ऐसा है कि भय न होने पर भी उससे माता-पिता को पद-पद पर भय दृष्टि में आता है। क्या सिंह की माता अपने पत्र के सिंह होने पर भी उसके नाश की शंका नहीं करती?' उसी समय सुदक्ष शुकराज उत्साहपूर्वक बोला-'हे तात! मैं प्रथम से ही विमलाचल तीर्थको वंदना करने की इच्छा करता हूं और यह अवसर भी आ मिला।जैसे नृत्य करने के इच्छुक मनुष्य के कान में मृदंग का गंभीर शब्द पड़े, क्षुधातुर पुरुष को भोजन का निमंत्रण आवे तथा निद्रा ग्रसित व्यक्ति को बिछा हुआ बिछौना मिले उसी प्रकार मुझे यह उत्तम साधन प्राप्त हो गया है इसलिए आपकी आज्ञा से मैं वहां जाऊंगा।' शुकराज के ये वचन सुनकर राजा मृगध्वज मंत्रियों के मुख की तरफ देखने लगा, तब मंत्रीगण बोले-'ऋषिश्रेष्ठ गांगलि ऋषि तो मांगनेवाले हैं, आप दाता हैं, तीर्थस्थान की रक्षा करने का कार्य है तथा रक्षा करनेवाला शुकराज है, इसलिए हमको इस कार्य में सम्मति देना उचित ही है।' दूध में घी व शक्कर की तरह मंत्रियों की अनुकूल सम्मति सुनकर शुकराज जाने के लिए बहुत उत्सुक हुआ तथा नेत्रों में अश्रु धारण किये हुए माता-पिता के चरणों में प्रणामकर गांगलि ऋषि के साथ चला और अर्जुन के समान वह धनुर्धारी वीर क्षणमात्र में सुयोग्य तीर्थ पर आया तथा सुसज्जित होकर वहां रहने लगा। उसके प्रभाव से उस पर्वत पर फल फूलों की खुब उत्पत्ति हुई, हिंसक पश तथा वन में अग्नि इत्यादि का किंचित् मात्र भी उपद्रव नहीं हुआ। पूर्वभव में आराधन किये हुए धर्म की महिमा इतनी अद्भुत है कि उसका वर्णन नहीं किया जा सकता, कारण कि शुकराज के समान साधारण मनुष्य की भी योग्यता एक महान तीर्थ के समान हो गयी। तपस्वीजनों के सानिध्य से सुखपूर्वक वहां रहते हुए एक दिन रात्रि के समय शुकराज ने किसी स्त्री के रोने का शब्द सुना। उसने उस स्त्री के पास जाकर मधुर-शब्दों से उसके दुःख का कारण पूछा। उस स्त्री ने कहा कि, 'शत्रु के समुदाय से भी कम्पित न होनेवाली चंपापुरी नगरी में शत्रओं का मर्दन करनेवाला शत्रुमर्दन नामक राजा है। उस राजा के साक्षात् पद्मावती के समान गुणवान पदमावती नामक एक कन्या है, मैं उसकी धायमाता हूं। एक समय में उसे गोद में लिये बैठी थी कि इतने में जैसे सिंह गाय सहित बछड़े को उठा ले जाये उस प्रकार कोई पापी मेरे सहित उस कन्या को उठा लाया तथा मुझे यहां डाल कौए की
SR No.002285
Book TitleShraddhvidhi Prakaranam Bhashantar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherJayanandvijay
Publication Year2005
Total Pages400
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size8 MB
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