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श्राद्धविधि प्रकरणम्
तरह वह दुष्ट कन्या को लेकर भाग गया। इसी दुःख से मैं रोती हूं।
उस स्त्री के वचन सुनकर शुकराज ने उसे धीरज दी और इसको तपस्वी की एक पर्णकुटी (झोपड़ी में रखकर विद्याधर की खोज में चला। फिरते-फिरते पिछली रात्रि के समय जिनमंदिर के पीछे जाते उसने भूमि पर पड़े हुए एक मनुष्य को तड़फड़ते हुए देखा तथा उसका नाम व दुःख का कारण पूछा। उसने उत्तर दिया कि 'गगनवल्लभपुर के राजा सुप्रसिद्ध विद्याधर का मैं पुत्र हूं। मेरा नाम वायुवेग है। राजा शत्रुमर्दन की पुत्री को हरणकर मैं इस मार्ग से जा रहा था कि तीर्थ के उल्लंघन से मेरी विद्या भ्रष्ट हो गयी इससे मैं यहां पड़ा हुआ हूं। सर्वांग पीड़ित होने पर मैंने परकन्या हरण के पातक से दुर्गति का अनुमान करके उस कन्या को तथा उसके ऊपर की आसक्ति को भी छोड़ दी
धिक के हाथ से छूटे हुए पक्षी की तरह वह कन्या भी मुझे छोड़कर कहीं चली गयी । धिक्कार है मुझे कि लाभ की इच्छा से मैंने सुखरूप मूल द्रव्य भी खो दिया और असह्य व्यथा को भोगता हूँ।
जिस बात की शोध में निकला था वही बात मालूम हो जाने से आनंदित होकर खोजते खोजते शुकराज ने मंदिर में देवी तुल्य उस कन्या को देखी और उसे ले जाकर उक्त धात्री के पास रखी। बहुत से उपायकर विद्याधर को भी निरोग किया । जीवनदान के उपकार से बिके हुए दास की तरह वह विद्याधर शुकराज पर बहुत प्रीति रखकर उसका सेवक हो गया । 'पुण्य का माहात्म्य अद्भुत है।'
एक समय शुकराज ने उस विद्याधर से पूछा कि, 'हे विद्याधर ! क्या तेरे पास आकाशगामिनी विद्या है?' उसने कहा- 'महाराज ! है; परन्तु वह बराबर स्फुरण नहीं हो रही है। कोई विद्यासिद्ध पुरुष जो मेरे मस्तक पर हाथ धरकर वह विद्या पुनः मुझे दे तो वह सिद्ध हो सकती है, अन्यथा नहीं।' इस पर शुकराज बोला कि, 'तो प्रथम तू मुझे वह विद्या दे, ताकि मैं विद्यासिद्ध होकर कर्ज लिये हुए द्रव्य की तरह तेरी विद्या तुझे वापस दे दूं।' तदनुसार वायुवेग विद्याधर ने संतोष से शुकराज को आकाशगामिनी विद्या दी। वह भी विधि-पूर्वक उसे साधन करने लगा। दैव की अनुकूलता तथा पूर्वभव का पुण्य दृढ़ होने से शीघ्र ही वह विद्या उसे सिद्ध हो गयी। तत्पश्चात् वही विद्या विद्याधर को वापस दी, उसे भी मुखपाठ की तरह सिद्ध हो गयी। इससे दोनों व्यक्ति आकाश तथा भूमिगामी हो गये । वायुवेग ने शुकराज को अन्य भी बहुत सी विद्याएं सिखायी, अगणित पूर्व पुण्यों का योग होने पर मनुष्य को कोई बात दुर्लभ नहीं
है।
पश्चात् गांगलि ऋषि की आज्ञा से उन दोनों ने एक विशाल विमान निर्मित किया और दोनों स्त्रियों को साथ लेकर चंपापुरी नगरी में गये। और मंत्र - सिद्ध पुरुष की तरह कन्या के अपहरण से दुःखित राजा का शोक दूर किया। राजा ने इसका परिचय पूछा तब वायुवेग ने शुकराज का सम्पूर्ण वर्णन कह सुनाया। जिससे राजा को ज्ञात हुआ कि यह तो मेरे मित्र का पुत्र है। शास्त्र में कहा है कि, 'राजा (रवि) मित्र - पुत्र (शनि) का शत्रु