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श्राद्धविधि प्रकरणम्
37 में मुझे मिल गया, धिक्कार है ऐसे दुर्दैव को कि जिसका इतना बुरा परिणाम है, सत्य कहने पर भी इतना अयोग्य परिणाम हुआ। तूफानी समुद्र के समान प्रतिकूल दैव को कौन रोक सकता है? क्या कोई अपनी कल्लोलमाला (लहरों) से बड़े बड़े पर्वतों को तोड़ देनेवाले संमुख आते हुए समुद्रप्रवाह को रोक सकता है? इसी तरह पूर्वभव में किये हुए कर्मों के शुभाशुभ परिणाम को भी कोई रोक नहीं सकता।'
इतने में ही मानो श्रीदत्त के पुण्यों ने आकर्षित किया हो इसी तरह इस देश में विहार करते हुए मुनिचन्द्र नामक केवली का उसी समय नगर के बाहर के उद्यान में आगमन हुआ। उद्यान-पालक के द्वारा खबर मिलते ही राजा सपरिवार वहां गया और जैसे बालक प्रातःकाल होते ही माता के पास खाने को मांगता है वैसे ही मुनिराज के पास उपदेश की याचना की। गुरु महाराज ने कहा कि, 'बन्दर को रत्नमाला के समान, जिसके हृदय में जगत् हितकारी धर्म व न्याय का मूल्य नहीं उसको क्या उपदेश दिया जाय?' - यह सुन राजा ने घबराकर पूछा कि, 'हे महाराज! मैं किस प्रकार अन्यायी हूं?' मुनिचन्द्रकेवली ने उत्तर दिया, 'सत्यभाषी श्रीदत्त का वचन तूने क्यों नहीं माना? राजा ने लज्जित होकर उसी समय श्रीदत्त को बुलाया और आदरयुक्त अपने पास बैठाकर मुनिराज से पूछा कि, 'महाराज! यह सत्य-भाषी कैसे?' इतने में ही वही बंदर पीठ पर सुवर्णरेखा को लिये हुए वहां आया तथा उसे पीठ से उतारकर वह भी वहीं बैठ गया। सब लोग कौतुक से उसे देखने लगे। राजा आदि सब ने सत्यवक्ता श्रीदत्त की बहुत प्रशंसा की तथा केवली भगवान् से सब वृत्तान्त पूछा। तब उन्होंने सब बात यथार्थ कह सुनायी।
तत्पश्चात् श्रीदत्त ने सरल-भाव से प्रश्न किया कि, 'हे भगवंत! मुझे अपनी माता तथा पुत्री पर कामवासना क्यों उत्पन्न हुई?'
केवली भगवान् ने कहा कि, 'यह सब तेरे पूर्वभव का प्रभाव है इसलिए तेरा पूर्वभव सुन
पांचालदेश के कांपिल्यपुर नगर में अग्निशर्मा नामक ब्राह्मण रहता था। उसका चैत्र नामक एक पुत्र था। चैत्र को शंकर की तरह गंगा व गौरी नामक दो स्त्रियां थीं। एक बार वह ब्राह्मणपुत्र चैत्र, मैत्र नामक मित्र के संग कुंकण देश में याचना करने गया। ब्राह्मणों को याचना बहुत ही प्रिय लगती है। ग्राम-ग्राम भ्रमण करके उन्होंने बहुतसारा द्रव्य उपार्जन किया। एक दिन जब कि चैत्र सो रहा था,मैत्र ने हृदय में दुष्ट अध्यवसाय रखकर विचार किया कि, 'इस चैत्र को मारकर मैं सर्व द्रव्य ले लूं और तुरंत मारने को उठा। अनर्थको पैदा करनेवाले ऐसे द्रव्य को धिक्कार है। जिस प्रकार दुष्ट वायु मेघ को छिन्नभिन्न कर देता है उसी तरह द्रव्य का लोभी मनुष्य विवेक, सत्य, संतोष, लज्जा, प्रीति तथा दया आदि सद्गुणों को शीघ्र नष्ट कर देता है। परन्तु सुदैव के योग से उसी समय मैत्र के चित्त में विवेकरूपी सूर्य का उदय हुआ और उससे लोभरूपी गाद