SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 49
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 38 श्राद्धविधि प्रकरणम् अन्धकार नाश हो गया। वह विचार करने लगा कि, 'मुझ पर विश्वास करनेवाले मित्र का वध करनेवाले मुझको धिक्कार है। ऐसे अध्यवसाय से मैं निंद्य से भी निंद्य हो गया।' इत्यादि विचार करता हुआ वह यथावत् अपने स्थान पर बैठ गया। ___ प्रातःकाल होते ही पुनः भ्रमण करना प्रारंभ किया। जिस प्रकार गड्ढा खोदने से बढ़ता है उसी तरह लाभ से लोभ भी बढ़ता है, साथ ही अतिलोभ करने से इसी लोक में अनर्थ की उत्पत्ति होती है, इसमें संशय नहीं। लोभरूपी नदी के पूर में डूबे हुए वे दोनों ब्राह्मण एक समय मार्ग में आयी हुई वैतरणी नदी के पूर में उतरे तथा डूबकर मर गये। तथा प्रथम तिर्यंच योनि पायी। पश्चात् नाना भव-भ्रमण करके हे श्रीदत्त! तुम दोनों मित्र (शंखदत व श्रीदत्त) हुए। शंखदत्त ने पूर्वभव में तेरे वधका विचार किया था इससे तूने उसे समुद्र में डाल दिया। जिस प्रकार लेनदार का कर्ज व्याज सहित चुकाना पड़ता है उसी तरह पूर्वभव के किये हुए कर्म भी यथाक्रम भोगने पड़ते हैं। तेरी दोनों स्त्रियां तेरे वियोग से संसार-मोह छोडकर तपस्विनी हो गयी तथा मासखमण पर मासखमण (मासिक उपवास) रूपी तपस्या करने लगी। विधवा होने पर कुलीन-स्त्रियों को यही उचित है। मनुष्य भव पाकर यह भव तथा पूर्व भव दोनों ही व्यर्थ गुमा बैठे ऐसा कौन मूर्ख है? ___ एक दिन अधिक तृषा लगने से व्याकुल होकर गौरी ने एक दासी के पास से बहुत बार पानी मांगा। दुपहर का समय होने के कारण निद्रा के वश हुई उस दासी ने ढीठमनुष्य (अहंकारी मानव) की तरह कुछ भी उत्तर नहीं दिया। गौरी यद्यपि स्वभाव से क्रोधी नहीं थी तथापि उस समय उसने दासी पर बहुत क्रोध किया। प्रायः तपस्वी, रोगी और क्षुधा तथा तृषा से पीड़ित मनुष्यों को थोड़े से कारण पर ही बहुत क्रोध चढ़ आता है। गौरी ने क्रोध से कहा, 'रेनीच! मरे हुए मनुष्य की तरह तू मुझेजवाब नहीं देती है इसका क्या कारण है?' इस तरह तिरस्कारयुक्त वचन सुनने पर दासी उठी व मधुर वचनों से गौरी का समाधानकर उसे पानी पिलाया। परन्तु गौरी ने, दुष्ट वचनों के कारण बहुत दुःख से भोगने के योग्य कर्म संचित किया। हंसी में कहे हुए कुवचनों से भी जब कर्म संचय होता है तो क्रोध से बोले हुए वचनों से कर्म का संचय हो इसमें शंका ही क्या है? गंगा ने भी काम का समय बीत जाने पर आयी हुई एक दासी को क्रोध से कहा कि, 'अरे दुष्ट दासी! तू अब आयी है,क्या तुझे किसीने कैद कर दी थी?' सारांश यही कि, गंगा व गौरी दोनों ने क्रोधवश समान ही कर्मों का संचय किया। एक समय बहुत से काम-व्यसनी-लोगों के साथ विलास करती हुई एक वेश्या को देखकर गंगा ने विचार किया कि 'भ्रमरों का झुंड जिस प्रकार प्रफुल्लित मोगरे की बेल को भोगते हैं, उसी प्रकार बहुत कामी-भ्रमर (लोग) जिसे भोगते हैं, ऐसी स्त्री धन्य
SR No.002285
Book TitleShraddhvidhi Prakaranam Bhashantar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherJayanandvijay
Publication Year2005
Total Pages400
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy