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________________ ___36 श्राद्धविधि प्रकरणम् इधर विभ्रमवती ने अपनी दासियों से पूछा कि, 'सुवर्णरेखा कहां है?' दासियों ने उत्तर दिया कि, 'एक लक्ष दिनार स्वीकार करके श्रीदत्त नामक श्रेष्ठी उसे उद्यान में ले गया है।' कुछ समय के पश्चात् विभ्रमवती की भेजी हुई दासियों ने एक दुकान पर बैठे हुए श्रीदत्त से पूछा कि, 'सुवर्णरेखा कहां है?' श्रीदत्त ने उत्तर दिया, 'कौन जाने कहां गयी? मैं क्या उसका नौकर हूं?' दासियों ने जाकर यही बात विभ्रमवती को कही। तब क्रोध से राक्षसी के समान होकर उस वेश्या ने राजा के संमुख जाकर, 'हे राजन्! मैं लुट गयी, लुट गयी!! इस प्रकार पुकार करना शुरू किया। राजा ने पूरा हाल पूछा तब वह कहने लगी कि, 'मेरी साक्षात् सुवर्णपुरुषरूपी सुवर्णरेखा को चोर शिरोमणि श्रीदत्त श्रेष्ठी ने कहीं छिपा दी ___'श्रीदत्त ने गणिका की चोरी करी यह बात कितनी असंभव है?' यह सोचकर राजा को बड़ा आश्चर्य हुआ और उसने श्रीदत्त को बुलाकर यह बात पूछी। श्रीदत्त ने यह सोचकर कि, 'जो मैं सब बात सत्य भी कह दूंगा तो भी ऐसी बात पर कौन विश्वास करेगा?' कुछ भी स्पष्ट उत्तर नहीं दिया। कहा भी है कि असम्भाव्यं न वक्तव्यं, प्रत्यक्षं यदि दृश्यते। यथा वानरसङ्गीतं, यथा तरति सा शिला ।।१।। बन्दर की संगीतकला या पानी पर तैरती शिला के समान कोई अघटित बात नजर आवे तो भी प्रकट नहीं करना ही उत्तम है। पापकर्मजैसे मनुष्य को नरक में डालते हैं वैसे ही राजा ने श्रीदत्त को बन्दीगृह में डाल दिया और क्रोध की अधिकता से उसकी सब संपत्ति जप्त करके उसकी कन्या को अपने यहां दासी बना लिया। सत्य है, भाग्य की तरह राजा भी किसी का सगा नहीं। बंदीगृह में पड़े हुए श्रीदत्त को जब यह विचार उत्पन्न हुआ कि, जैसे पवन से अग्नि सुलगती है वैसे ही मैंने कोई उत्तर नहीं दिया इससे राजा की कोपाग्नि धधक उठी है अतएव यदि मैं यथार्थ बात कह दूं तो कदाचित् छुटकारा हो जायेगा। तब उसने द्वारपाल के द्वारा राजा को प्रार्थना की। जब राजा ने उसे बंदीगृह से निकालकर पुनः पूछा तो उसने कहा कि, 'एक बन्दर सुवर्णरेखा को ले गया है', यह सुनकर सबको हंसी आ गयी, वे आश्चर्य पाकर कहने लगे कि, 'अहा! कैसी सत्य बात कही? यह दुष्ट कितना मूर्ख है?' राजाका क्रोध और भी बढ़ गया उसने एकदम श्रीदत्त को प्राणदंड की आज्ञा दी। यह बात योग्य ही है कि बड़े मनुष्यों का रोष अथवा तोष शीघ्र ही भला या बुरा फल देता है। राजा की आज्ञानुसार उसके वीर सुभट तुरन्त ही श्रीदत्त को वध्यस्थल पर ले गये। तब वह मन में विचार करने लगा कि, 'माता तथा पुत्री के साथ कामभोग करना तथा मित्रघात की चेष्टा इत्यादि महान् पातक मेरे हाथ से हुए हैं, उनका फल इसी भव
SR No.002285
Book TitleShraddhvidhi Prakaranam Bhashantar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherJayanandvijay
Publication Year2005
Total Pages400
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size8 MB
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