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श्राद्धविधि प्रकरणम् ऐसी है, उसको तरुण स्त्री मिल जाय तो वह कामधेनु के समान समझती है। विभ्रमवती ने उसका 'सुवर्णरेखा' यह नया नाम रखा और बड़े परिश्रम से शिक्षा देकर इसे गीत, नृत्य आदि सिखाया, क्योंकि इन कलाओं में निपुणता ही केवल वारांगनाओं का धन है। क्रमशः सुवर्णरेखा वेश्या-कर्म में इतनी निपुण हो गयी कि मानों जन्म से ही वेश्या का धन्धा करती हो। ठीक ही है, पानी जिसके साथ मिलता है वैसा ही रंग रूप ग्रहण कर लेता है। दुर्जन की संगति को धिक्कार है! देखो, वह सोमश्री एक भव छोड़कर मानो दूसरे भव में गयी हो इस प्रकार बिलकुल ही बदल गयी अथवा दुर्दैववश एक ही भव में अनेक भव भोग रही है। सुवर्णरेखा ने अपनी कलाओं से राजा को इतना प्रसन्न किया कि जिससे उसने इसे अपनी चामरधारिणी नियत कर दी।
मुनि कहते हैं कि, 'हे श्रीदत्त! यह तेरी माता ऐसी हो गयी है मानो दूसरा भव पायी हो। पूर्व का रूप वर्ण बदल जाने से तू इसे पहचान न सका, परन्तु इसने तुझे पहचान लिया था तथापि शर्म और द्रव्य लोभ से परिचय नहीं दिया। जगत् में लोभ का कैसा अखंड साम्राज्य है? किसीने इस लोभ को नहीं छोड़ा। धिक्कार है! ऐसे वेश्या-कर्म को! जो संपूर्ण पाप व दुष्कर्म की सीमा कहलाता है तथा जिससे प्रत्यक्ष माता पुत्र को पहिचानकर भी द्रव्य लोभ से उसके साथ काम-क्रीड़ा करने की इच्छा करती है। वही व्यक्ति सर्वथा योग्य है जो ऐसी शीलभ्रष्ट वेश्याओं को निंद्यातिनिंद्य तथा त्याज्य से त्याज्य मानता है।' ___ मुनि के ये वचन सुनकर श्रीदत्त को बहुत दुःख व आश्चर्य हुआ। पुनः उसने मुनि से पूछा कि, 'हे त्रैलोक्याधीश! यह सब वृत्तान्त उस बन्दर ने कैसे जाना? महाराज! जिस प्रकार मुनिराज जीवों को संसार-बंधन से बचाते हैं, उसी प्रकार उसने मुझे अंधकूप में गिरने से बचाकर बहुत ही अच्छा किया, परन्तु वह मनुष्य की भाषा किस तरह बोलता था सो समझाइये।' - मुनि भगवंत कहने लगे कि, 'हे श्रीदत्त! तेरा पिता सोमश्रेष्ठी स्त्री के ध्यान में निमग्न होकर नगर में प्रवेश करते हुए एकाएक' बाण लगने से मृत्यु पाकर व्यंतर हुआ। चित्त में बहत राग होने से भ्रमर की तरह वह अनेकों वनों में भ्रमण करता हुआ इधर आया, तथा तुझे अपनी माता में आसक्त हुआ देखकर उसने बन्दर के शरीर में प्रवेश करके तुझे सावधान किया। परभव में जाने पर भी पिता सदैव पुत्र का हिताकांक्षी ही रहता है। वही तेरा पिता पुनः बन्दर के रूप में अभी यहां आयेगा और पूर्व-भव के प्रेम से तेरी माता को पीठ पर बिठाकर तेरे देखते-देखते शीघ्र यहां से ले जायेगा।'
मुनिराज यह कह ही रहे थे कि इतने में उसी बन्दर ने आकर जैसे सिंह अम्बाजी को पीठ पर धारण करता है वैसे ही सुवर्णरेखा को अपनी पीठ पर बिठाकर वह अपने इष्ट स्थान.को चला गया।
१. अकाण्डकाण्डघातेन