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________________ 34 श्राद्धविधि प्रकरणम् चारों ओर से किल्ले पर धावा कर दिया। मुनिराज के वचन जिस प्रकार दुष्कर्मों का शीघ्र ही नाश कर डालते हैं उसी प्रकार पल्लीपति की सेना ने बात की बात में किल्ला तोड़ डाला तथा मदोन्मत्त हाथी की तरह सूरकान्त की सेना के योद्धाओं के बाणरूपी अंकुश की कुछ परवाह न करते एकदम श्रीमंदरपुर की पोलका दरवाजा तोड़कर वह सेना नदी प्रवाह की तरह भीतर घुस गयी। तेरा पिता स्त्री प्राप्ति की उत्सुकता से आगे जा रहा था। वह एक तीक्ष्णबाण के कपाल में लगने से मृत्यु को प्राप्त हो गया। सत्य है, मनुष्य कुछ सोचता है पर दैव कुछ करता है। स्त्री को छुड़ाकर लाने का प्रयत्न ही उसकी मृत्यु का कारण हो गया, एक कथा का यह श्लोक है कि "हाथी के मन में कुछ और था, सिंह के मन में और, सर्पके मन में कुछ और तथा शियाल के मन में भी और, परन्तु दैव के मन में तो सबसे ही निराला था"। पल्लीपति की सेना के नगर में प्रवेश करते ही राजा सूरकान्त बहुत घबराया तथा वहां से कहीं भाग गया। सत्य है पापियों की जय कहां से हो? पल्लीपति की सेना ने तुरन्त हरिणी की तरह धूजती हुई सोमश्री को पकड़ ली। पश्चात् नगर लूटकर सब भिल्ल सैनिक अपने-अपने स्थान को जाने लगे। इस भागदौड़ में मौका पाकर सोमश्री भी वहां से भाग निकली, तथा वन में भटकती हुई उसने एक वृक्ष का फल खाया जिससे उसका शरीर तो किंचित् मात्र ठिगना हो गया, परन्तु शरीरकांति पूर्व की अपेक्षा बहुत ही दिव्य तथा सुन्दर हो गयी। मणि-मंत्र तथा औषधियों का प्रभाव ही अद्भुत है। मार्ग में जाते हुए कुछ वणिगलोगों को इसे देखकर बड़ा ही आश्चर्य हुआ। इससे पूछने लगे कि, 'हे सुन्दरी! क्या तू कोई देवांगना, नागकुमारी, वनदेवी,स्थलदेवी अथवा जलदेवी है? हमको विश्वास है कि.तू मानवी तो कदापि नहीं है। सोमश्री ने गद्गद् स्वर से उत्तर दिया कि, 'हे विज्ञानियों! तुम विश्वास से मानो कि मैं कोई देवी देवता नहीं, बल्कि मनुष्य की ही स्त्री हूं। इस सुंदररूप ने ही मुझे दुःख सागर में डाली है। जब दैव प्रतिकूल होता है तो गुण भी दोष हो जाता है।' ___यह सुन उन्होंने सुखपूर्वक अपने पास रखने का वचन देकर सोमश्री को अपने साथ में ले ली तथा गुप्तरत्न की तरह उसकी रक्षा करने लगे। तथा उसके रूपगुण पर आसक्त होकर हर एक वणिग् उससे विवाह करने की इच्छा करने लगा। कुछ समय के बाद वे फिरते-फिरते इसी सुवर्णकूल बंदर में आये तथा बहुत सा किराना खरीदा। इतने में एक वस्तु बहुत सस्ती हो गयी। प्रायः वणिगलोगों की यह रीति ही है कि भाव बढ़ जाने की अभिलाषा से सस्ती वस्तु विशेष खरीदते हैं, परन्तु फल भोगने से जिस प्रकार पूर्वभव का संचित पुण्य क्षीण हो जाता है उसी प्रकार प्रथम ही बहुत सी वस्तुएं खरीद लेने से उनके पास का द्रव्य क्षीण हो गया, तब सबने विचारकर सोमश्री को एक वेश्या के यहां बेच दिया। मनुष्यों को अपार लोभ होता है और जिस में वणिगजनों को तो अधिक ही होता है, इसमें संशय ही क्या? इस नगर की विभ्रमवती नामक वेश्या ने एक लक्ष द्रव्य देकर आनन्दपूर्वक सोमश्री को मोल ले ली। सत्य है, वेश्या की जाति ही
SR No.002285
Book TitleShraddhvidhi Prakaranam Bhashantar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherJayanandvijay
Publication Year2005
Total Pages400
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size8 MB
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