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________________ 32 श्राद्धविधि प्रकरणम् कहा कि, 'यह राजा की आश्रित सुवर्णरेखा नामक प्रख्यात वेश्या है, अर्ध लक्ष (५००००) द्रव्य लिये सिवाय किसीसे बात भी नहीं करती है।' यह सुन श्रीदत्त ने उस वेश्या को अर्धलक्ष द्रव्य देना स्वीकार किया तथा उसे व उस कन्या को रथ में बिठाकर वन में गया। वहां शांतिपूर्वक बैठकर एक तरफ उस कन्या को तथा एक तरफ उस वेश्या को बिठाकर हास्य-भरी बातें करने लगा। इतने में ही एक बन्दर चतुराई से अनेक बन्दरियों के साथ काम-क्रीड़ा करता हुआ वहां आया। श्रीदत्त ने उसे देखकर सुवर्णरेखा से पूछा कि, 'क्या यह सब बन्दरियां इस बन्दर की स्त्रियां ही होगी?' वेश्या सुवर्णरेखा ने उत्तर दिया कि, 'हे चतुर! तिर्यंच जाति के विषय में यह क्या प्रश्न? इसमें कोई इसकी माता होगी, कितनी ही बहनें होंगी, कितनी ही पुत्रियां होंगी, तथा कितनी ही ओर कोई होंगी।' यह सुन श्रीदत्त ने शुद्ध चित्त व गम्भीरता से कहा कि जिसमें माता, पुत्री, बहन इतना भी भेद नहीं ऐसे अविवेकी तिर्यंच के अतिनिंद्य जीवन को धिक्कार है! वह नीच जन्म व जीवन किस कामका है? जिसमें इतनी भारी मूर्खता हो कि कृत्याकृत्य का भेद भी न जाना जा सके।' यह सुन जैसे कोई अभिमानी वादी किसी का आक्षेप वचन सुनकर शीघ्र जवाब देता हो वैसे ही उस बन्दर ने जाते-जाते वापस फिरकर कहा कि, 'रे दुष्ट! रे दुराचारी! रे दूसरों के छिद्र देखनेवाले! तू केवल पर्वत पर जलता हुआ देखता है परन्तु यह नहीं देखता कि स्वयं अपने पैर नीचे क्या जल रहा है? केवल तुझे दूसरे के ही दोष कहने आते हैं! सत्य है राईसरिसवमित्ताणि परच्छिद्दाणि गवेसइ। अप्पणो बिल्लमित्ताणि पासंतोवि न पासई ।।१।। दुष्ट मनुष्य को दूसरे के तो राई तथा सरसव के समान दोष भी शीघ्र दीख पड़ते हैं परन्तु अपने बिल्व फल के समान दोष दीखते हुए भी नहीं दिखते। रे दुष्ट! नीच इच्छा से एक तरफ अपनी माता तथा एक तरफ अपनी पुत्री को बैठाकर तथा अपने मित्र को समुद्र में फेंककर तू मेरी निन्दा करता है?' यह कहकर बन्दर उछलता कूदता शीघ्र अपने झुंड में जा मिला। इधर हृदय में वज्र-प्रहार के समान वेदना भोगता हुआ श्रीदत्त विचार करने लगा कि, 'धिक्कार है मुझे! बन्दर ने एकदम ये क्या दुर्वचन कहा? जो मुझे समुद्र में अचानक बहती हुई मिली वह मेरी कन्या किस तरह हो सकती है।? तथा यह सुवर्णरेखा भी मेरी माता कैसे हो सकती है? मेरी माता तो इससे किंचित् ऊंची है, उसके शरीर का वर्ण भी कुछ श्याम है। अनुमान से उम्र के वर्ष गिनूं तो यह कन्या कदाचित् मेरी पुत्री हो ऐसा संभव है; परन्तु सुवर्णरेखा मेरी माता हो यह कदापि संभव नहीं; तथापि इससे पूछना चाहिए।' यह सोचकर उसने सुवर्णरेखा से पूछा तो उसने स्पष्ट उत्तर दिया कि, 'अरे मुग्ध! यहां विदेश में तुझे कौन पहचानता है? तू व्यर्थ जानवर के कहने से क्यों भ्रम में पड़ता है?' परन्तु श्रीदत्त के मन की शंका इससे दूर न हुई। (क्योंकि मित्र को समुद्र में
SR No.002285
Book TitleShraddhvidhi Prakaranam Bhashantar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherJayanandvijay
Publication Year2005
Total Pages400
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size8 MB
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