________________
श्राद्धविधि प्रकरणम्
31
उसमें से नींम के पत्तों में लपेटी हुई एक नीलवर्ण की कन्या निकली जिसे देखकर सबको आश्चर्य हुआ।
शंखदत्त बोला कि, 'इस कन्या को किसी दुष्ट सर्प ने काटा है इससे किसीने इसे जल में बहा दी है।' यह कह तुरन्त उसने मंत्र द्वारा उस पर जल छिड़ककर सचेतन की व हर्ष से कहने लगा कि, 'मैंने इसे जीवित की है इसलिए मेनका के समान इस सुन्दर रमणी से मैं ही विवाह करूंगा।' यह सुन श्रीदत्त भी कहने लगा कि, 'शंखदत्त ! ऐसा न कहो, कारण कि मैंने प्रथम से ही कहा था कि 'आधा-आधा भाग बांट लेंगे, तदनुसार इस कन्या को मैं लूंगा तथा तेरे आधे भाग के बदले तुझे द्रव्य दे दूंगा।'
जिस प्रकार मदनफल (मेनफल) के खाने से वमन हो जाता है उसी तरह ऊपर लिखे अनुसार विवाद से दोनों जनों ने स्त्रीप्राप्ति की अभिलाषा से पारस्परिक प्रीति त्याग दी। कहा भी है कि, एक दूसरे के ऊपर अपूर्व प्रीति रखनेवाले सहोदर भाई अथवा मित्रों में स्त्री ही एक ऐसी वस्तु है कि जो भेद उत्पन्न करवा देती है। कितना ही मजबूत ताला क्यों न हो चाबीरूपी स्त्री अन्दर प्रवेश करते ही सब खोल देती है।
निदान दोनों में जब वादी प्रतिवादी की तरह बहुत कलह उपस्थित हुआ, तब खलासियों ने कहा कि, 'अभी आप स्वस्थ रहिए, दो दिन बाद अपना जहाज सुवर्णकूल नामक बन्दर पर पहुंचेगा, वहां कोई बुद्धिमान् पुरुष से इस बात का निर्णय कराइयेगा, " यह सुन शंखदत्त चुप हो रहा। श्रीदत्त मन में विचार करने लगा कि 'इस कन्या को शंखदत्त ने सचेतन की है अतएव न्याय होने पर यह कन्या इसीको मिलेगी। इसलिए वह अवसर आने के पूर्व ही मैं कोई उपाय करूं।'
यह सोचकर दुष्टबुद्धि श्रीदत्त ने शंखदत्त के ऊपर अपना पूर्ण विश्वास जमाया और कुछ देर के पश्चात् उसे लेकर पुनः छज्जे (डेक) में आ बैठा और कहने लगा कि 'मित्र! देख तो यह आठ मुंह का मत्स्य जा रहा है।' यह सुन ज्यों ही कौतुकवश शंखदत्त झुककर देखने लगा त्यों ही मित्र श्रीदत्त ने शत्रु की तरह उसे धक्का देकर समुद्र में डाल दिया। धिक्कार है ऐसी स्त्री को जिसके कारण श्रेष्ठ मनुष्य भी मित्र - द्रोही हो जाते हैं। ऐसी स्त्री का मुंह सुंदर होते हुए भी देखने के योग्य नहीं । नीच ऐसा श्रीदत्त इष्टकार्य पूर्ण हो जाने से मन ही मन बड़ा प्रसन्न हुआ। परन्तु कपटी प्रीति दिखाने के हेतु प्रातःकाल होते ही बनावटी खेद करता हुआ चिल्लाने लगा कि, हाय ! हाय!! मेरे मित्र का न जाने क्या हो गया, कहां चला गया इत्यादि । अंत में दो दिन बाद वह सुवर्णकूल बंदर पहुंचा। वहां जाकर उसने राजा को बड़े-बड़े हाथी भेट किये। राजा ने प्रसन्न होकर उसका आदरपूर्वक स्वागत किया तथा हाथियों का बहुतसा मूल्य देकर व्यापार का कर भी माफ किया। श्रीदत्त ने वहां रहकर खूब व्यापार करना शुरू किया तथा उस कन्या के साथ विवाह करने के लिए लग्न निश्चित करके विवाह की सामग्रियां तैयार करवाने लगा। वह नित्य राजसभा में जाया करता था। वहां राजा की एक अत्यन्त रूपवती चामरधारिणी को देखकर एक मनुष्य से उसका वर्णन पूछा। उस मनुष्य ने