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श्राद्धविधि प्रकरणम् के समान दुर्वचन कहने लगा। मंत्रियों ने सोमश्रेष्ठि को समझाया कि, 'हे श्रेष्ठि! अब कोई उपाय नहीं दीखता। हाथी के दोनों कान कैसे स्थिर रखे जाय? स्वयं स्वयं का अनर्थ करनेवाले मालिक को कैसे रोका जाय? जो खेत के आसपास लगाई हुई बाड़ ही खेत खाने लगे तो क्या उपाय किया जाय? कहा है कि-जो माता पुत्र को विष दे, पिता पुत्र को बेचे और राजा सर्वस्व हरण करे तो उपाय ही क्या? . पश्चात् सोमश्रेष्ठि ने बहुत खिन्न होकर अपने पुत्र से कहा कि, 'हे श्रीदत्त! दुर्भाग्य से अपना बहुत ही मान भंग हुआ है, समय पर माता-पिता का पराभव तो पुत्र भी सहन कर सकता है, परन्तु स्त्री का पराभव तो तिर्यंच भी सह नहीं सकता। अतः कोई भी उपाय से इसका बदला अवश्य लेना चाहिए। मुझे इस समय द्रव्य का उपयोग ही एक मात्र उपाय दीखता है। अपने पास छः लाख रुपये हैं, उसमें से पांच लाख साथ लेकर मैं कोई दूर देश जाऊंगा, वहां जाकर किसी बलिष्ठ राजा की सेवा करूंगा तथा उसे प्रसन्न करके उसकी मदद से क्षणभर में तेरी माता को छुड़ा लाऊंगा। अपने में प्रभुता न हो व राजा भी वश में न हो तो इष्टकार्य की सिद्धि किस तरह हो सकती है? जो अपने पास नौका न हो अथवा नौका का मल्लाह उत्तम न हो तो समुद्र पार कैसे कर सकते हैं? यह कह द्रव्य साथ लेकर सोमश्रेष्ठि चुपचाप वहां से चला गया। सत्य है पुरुष स्त्री के लिए दुष्कर-कार्य भी कर सकते हैं। देखो! क्या पांडवों ने द्रोपदी के लिए समुद्र पार नहीं किया था? ___सोमश्रेष्ठी के विदेश चले जाने के बाद श्रीदत्त को एक कन्या उत्पन्न हुई, अवसर पाकर दुर्दैव भी अपना जोर चलाता है। श्रीदत्त ने मन में विचार किया कि, 'धिक्कार है! मुझे मुझपर कितने दुःख आ पड़े, एक तो माता-पिता का वियोग हुआ, द्रव्य की हानि हुई, राजा द्वेषी हुआ और विशेष में कन्या की उत्पत्ति हुई। दूसरे को दुःख में डालकर संतोष पानेवाला दुर्दैव अभी भी मालूम नहीं क्या करेगा?' इस प्रकार चिन्ता करते दस दिन व्यतीत हो गये। तत्पश्चात् उसके एक मित्र शंखदत्त ने उसे कहा कि, 'हे श्रीदत्त! दुःख न कर। चलो, हम द्रव्य उपार्जन के हेतु समुद्र यात्रा करें, उसमें जो लाभ होगा वह हम दोनों समान भाग से बांट लेंगे।'
श्रीदत्त ने यह बात स्वीकार की और अपनी स्त्री तथा कन्या को एक सम्बन्धी के यहां रखकर शंखदत्त के साथ सिंहलद्वीप में आकर बहुत वर्ष तक रहा। पश्चात् अधिक लाभ की इच्छा से कटाह द्वीप में जाकर सुखपूर्वक दो वर्ष तक रहा। क्रमशः दोनों ने आठ करोड़ द्रव्य उपार्जन किया। देव की अनुकूलता तथा दीर्घ प्रयत्न दोनों का योग होने पर द्रव्य लाभ हो उसमें आश्चर्य ही क्या है? कुछ काल के अनन्तर उन दोनों ने बहुत सा माल खरीदा तथा अनेकों जहाज भरकर वहां से सुखपूर्वक विदा हुए। एक समय दोनों जहाज के छज्जे (डेक) में बैठे थे कि समुद्र में तैरती हुई एक संदूक पर उनकी दृष्टि पड़ी। शीघ्र ही उन्होंने मल्लाहों द्वारा उसे बाहर निकलवायी 'उसके अन्दर से जो कुछ निकलेगा उसे आधा-आधा बांट लेंगे' यह निश्चयकर संदूक खोली,