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________________ श्राद्धविधि प्रकरणम् 377 सुन नरवाहन राजा ने दीक्षा ग्रहण की और आयुष्य के अंत में ब्रहोंद्र होकर श्री नेमिनाथ भगवान् की वज्रमृतिकामय प्रतिमा बनाकर उसकी दश सागरोपम तक पूजा की। आयुष्य का अंत आया तब गिरनार पर्वत ऊपर सुवर्णरत्नमय प्रतिमावाले तीन गभारे (मूर्तिगृह) करके उनके सन्मुख एक सुवर्णमय झरोखा (बलानक) बनवाया; और उसमें उक्त वज्रमृत्तिकामय प्रतिमा की स्थापना की। अनुक्रम से संघवी श्रीरत्न श्रेष्ठी महान् संघ के साथ गिरनार पर यात्रा करने आया । विशेष हर्ष से स्नात्र करने से मृत्तिकामय (लेप्यमय) प्रतिमा गल गयी। जिससे रत्न श्रेष्ठी को बड़ा खेद हुआ। साठ उपवास करने से प्रसन्न हुई अंबादेवी के वचन से वह सुवर्णमय बलानक की प्रतिमा को लाया, वह कच्चे सूत से लपेटी हुई लायी जाती चैत्य के द्वार में आते पीछे फिरकर देखा जिससे वह प्रतिमा वहीं स्थिर हो गयी। पश्चात् चैत्य का द्वार फिरा दिया। वह अभीतक वैसा ही है । कोई-कोई ऐसा कहते हैं कि, सुवर्णमय बलानक में बहत्तर बड़ी बड़ी प्रतिमाएं थीं। जिनमें अट्ठारह सुवर्णमयी, अट्ठारह रत्नमयी, अट्ठारह रौप्यमयी और अट्ठारह पाषाणमयी थी । इत्यादि । सातवां द्वार - प्रतिष्ठा महोत्सव : के - प्रतिमा की प्रतिष्ठा शीघ्र करानी चाहिए। षोड़शक में कहा है कि पूर्वोक्त विधि 'अनुसार बनवायी हुई जिनप्रतिमा की प्रतिष्ठा शीघ्र ही दश दिन के अंदर करनी चाहिए। प्रतिष्ठा संक्षेप से तीन प्रकार की है—एक व्यक्ति प्रतिष्ठा, दूसरी क्षेत्र प्रतिष्ठा और तीसरी महाप्रतिष्ठा, सिद्धांत के ज्ञाता लोग ऐसा कहते हैं कि, जिस समय में जिस तीर्थंकर का शासन चलता हो उस समय में उसी तीर्थंकर की ही अकेली प्रतिमा हो वह व्यक्ति प्रतिष्ठा कहलाती है। ऋषभदेव आदि चौबीसों की क्षेत्रप्रतिष्ठा कहलाती है और एकसो सत्तर भगवान् की महाप्रतिष्ठा कहलाती है, बृहद्भाष्य में कहा है किएक व्यक्ति प्रतिष्ठा, दूसरी क्षेत्र प्रतिष्ठा और तीसरी महाप्रतिष्ठा, उन्हें अनुक्रम से एक, चौबीस और एकसोसत्तर भगवान् की जानना । सब प्रकार की प्रतिष्ठाओं की सामग्री संपादन करना, श्रीसंघ को तथा श्रीगुरु महाराज को बुलाना, उनका प्रवेश आदि महोत्सवपूर्वक करके, सम्यक् प्रकार से उनका आगत स्वागत करना । भोजन वस्त्र आदि देकर उनका सर्व प्रकार से सत्कार करना । कैदियों को छुड़वाना । अहिंसा प्रवर्त्ताना। किसीको भी बाधा न हो ऐसी दानशाला चलाना । सुतार आदि का सत्कार करना। बहुत धूमधाम के साथ संगीत आदि अद्भुत उत्सव करना । अट्ठारह स्नात्र करना । इत्यादिक विशेष प्रतिष्ठाकल्प आदि ग्रंथों में देखो। प्रतिष्ठा में स्नात्र के अवसर पर भगवान् की जन्मावस्था का चिंतन करना, तथा फल, नैवेद्य, पुष्प, विलेपन, संगीत इत्यादि उपचार के समय कौमार्य आदि चढ़ती अवस्था का चिंतन करना । छद्मस्थावस्था के सूचक वस्त्रादिक से शरीर का आच्छादन करना इत्यादि उपचार के समय भगवान् की शुद्ध चारित्रावस्था का चिंतन करना । अंजनशलाका से नेत्र का उघाड़ना करते समय भगवान् की केवली अवस्था का
SR No.002285
Book TitleShraddhvidhi Prakaranam Bhashantar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherJayanandvijay
Publication Year2005
Total Pages400
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size8 MB
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