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________________ 378 श्राद्धविधि प्रकरणम् चिंतन करना । तथा पूजा में सर्व प्रकार के बड़े-बड़े उपचार करने के समय समवसरण में रही हुई भगवान् की अवस्था का चिंतवन करना । श्राद्धसामाचारीवृत्ति में कहा है कि प्रतिष्ठा करने के अनंतर बारह मास तक प्रतिमास उस दिन उत्तम प्रकार से स्नात्र आदि करना। वर्ष पूरा होने पर अट्ठाई उत्सव करना, और आयुष्य की ग्रंथि बांधना, तथा उत्तरोत्तर विशेषपूजा करना । वर्षगांठ के दिन साधर्मिकवात्सल्य तथा संघपूजा आदि शक्त्यानुसार करना । प्रतिष्ठाषोडशक में तो इस प्रकार कहा है कि - भगवान् की लगातार आठ दिन तक एक समान पूजा करना, तथा सर्व प्राणियों को यथाशक्ति दान देना चाहिए। आठवां द्वार - दीक्षा महोत्सव : पुत्र, पुत्री, भाई, भतिजा, स्वजन, मित्र, सेवक आदि की दीक्षा का उत्सव बड़ी सजधज से करना चाहिए। कहा है कि — भरतचक्रवर्ती के पांचसो पुत्र और सातसो पौत्रों ने उस समवसरण में एक साथ ही दीक्षा ग्रहण की। श्रीकृष्ण तथा चेटकराजा ने अपनी संतति का विवाह न करने का निर्णय किया था, तथा अपनी पुत्री आदि को तथा थावच्चापुत्र आदि को उत्सव के साथ दीक्षा दिलवायी थी सो प्रसिद्ध है। दीक्षा दिलाने में बहुत पुण्य है। कहा है कि – जिसके कुल में चारित्रधारी उत्तम पुत्र होता है, वे माता, पिता स्वजनवर्ग बडे पुण्यशाली और धन्य हैं। लौकिकशास्त्र में कहा है कि जब तक कुल में कोई पुत्र पवित्रसन्यासी नहीं होता, तब तक पिंड की इच्छा करनेवाले पितृ संसार भ्रमण करते हैं। नवमां द्वार - पद महोत्सव : पदस्थापना याने गणि, वाचकाचार्य, वाचनाचार्य, दीक्षा लिये हुए अपने पुत्रादि तथा अन्य भी जो योग्य हो, उनकी पदस्थापना शासन की उन्नति आदि के लिए महोत्सव के साथ कराना । सुनते हैं कि, अरिहंत के प्रथम समवसरण में इंद्र स्वयं गणधर पद की स्थापना कराता है। वस्तुपाल मंत्री ने भी इक्कीस आचार्यों की पदस्थापना करायी थी। दशवां द्वार - पुस्तक लेखन : श्री कल्प आदि आगम, जिनेश्वर भगवान के चरित्र आदि पुस्तकें न्यायोपार्जित द्रव्य से शुद्ध अक्षर से तथा उत्तमपत्र में युक्तिपूर्वक लिखवाना । इसी प्रकार वाचन अर्थात् संवेगी गीतार्थ मुनिराज से ग्रंथ का आरम्भ हो, उस दिन उत्सव आदि करके तथा प्रतिदिन सादी पूजा करके व्याख्यान करवाना; इससे बहुत से भव्यजीवों को प्रतिबोध होता है। साथ ही व्याख्यान करने तथा पढ़नेवाले मुनिराजों को वस्त्र आदि बहोराकर उनकी सहायता करना चाहिए। कहा है कि - जो लोग जिनाज्ञा (जैनागमों) की पुस्तकें लिखावें, व्याख्यान करावें, पढ़ें, पढ़ावें, सुनें और विशेष यतना के साथ पुस्तकों की रक्षा करें, वे मनुष्यलोक, देवलोक तथा निर्वाण के सुख पाते हैं। जो पुरुष
SR No.002285
Book TitleShraddhvidhi Prakaranam Bhashantar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherJayanandvijay
Publication Year2005
Total Pages400
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size8 MB
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