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________________ 376 श्राद्धविधि प्रकरणम् भरतचक्रवर्ती ने शत्रुजय पर्वतपर रत्नमय चतुर्मुख से बिराजमान, चौरासीमंडपों से सशोभित, डेढ माइल ऊंचा, साढ़े चार माइल लंबा जिनमंदिर जहां पुंडरीकस्वामी पांच करोड मुनियों सहित ज्ञान और निर्वाण को प्राप्त हुए थे, वहां बनवाया। इसी तरह बाहुबलि तथा मरुदेवी आदि के शिखर पर, गिरनार ऊपर, आबु पर, वैभारपर्वत पर, सम्मेतशिखर पर, तथा अष्टापद आदि में भी भरतचक्रवर्ती ने बहुत से जिनप्रासाद और पांचसो धनुष्य आदि प्रमाण की तथा सुवर्ण आदि की प्रतिमाएं भी बनवायीं। दंडवीर्य, सगरचक्रवर्ती आदि राजाओं ने उन मंदिरों तथा प्रतिमाओं का उद्धार भीकराया। हरिषेण चक्रवर्ती ने जिनमंदिर से पृथ्वी को सुशोभित की। संप्रतिराजा ने भी सो वर्ष आयुष्य की शद्धि के निमित्त छत्तीस हजार नये तथा शेष जीर्णोद्धार मिलकर सवा लक्ष जिनमंदिर बनवाये। सुवर्ण आदिकी सवा करोड़ प्रतिमाएं बनवायी। आमराजा ने गोवर्धन पर्वत पर सादेतीन करोड़ सुवर्णमुद्राएँ व्ययकर सातहाथ प्रमाण सुवर्णप्रतिमायुक्त एक महावीरस्वामी का मंदिर बनवाया, मूलमंडप में सवालक्ष सुवर्णमुद्राएँ तथा रंगमंडप में इक्कीस लाख सुवर्णमुद्राएँ लगी। कुमारपाल ने तो चौदहसो चुम्मालीस नूतन जिनमंदिर तथा सौलहसो जीर्णोद्धार करवाये, छियानबे करोड़ द्रव्य व्यय करके पिता के नामसे बनाये हुए त्रिभुवनविहार में एकसो पच्चीस अंगुल ऊंची मूलनायकजी की प्रतिमा अरिष्ट रत्नमयी बनवायी थी, भिन्न-भिन्न बहत्तर देरियों में चौदहभारएक प्रकार का तौल] प्रमाण की चौबीस रत्नमयी, चौबीस सुवर्णमयी और चौबीस रौप्यमयी प्रतिमाएं बनवायी थी। वस्तुपाल मंत्री ने तेरहसो तेरह नवीन जिनमंदिर और बाइससो जीर्णोद्धार कराये, तथा सवालाख जिनबिंब भरवाये। पेथड़श्रेष्ठी ने चोरासी जिनप्रासाद बनवाये, उसमें सुरगिरि पर चैत्य नहीं था वह बनवाने का विचारकर वीरमद राजा के प्रधान विप्र हेमादे के नाम से उसकी प्रसन्नता के लिए उसने मांधातापुर में तथा ओंकारपुर में तीन वर्ष तक दानशाला चालु रखी। हेमादे प्रसन्न हुआ और पेथड़ को सात राजमहल के बराबर भूमि दी। नींव खोदने पर मीठा जल निकला, तब किसीने राजा के पास जा चुगली खायी कि, 'महाराज! मीठा जल निकला है, इसलिए बावड़ी बंधाओ।' यह बात मालूम होते ही पेथड़ श्रेष्ठी ने रातोंरात बारहजार टंक का लवण पानी में डलवाया। इस चैत्य के बनाने के लिए स्वर्णमुद्राओं से लदी हुई बत्तीस ऊंटनियां भेजी। नींव में चोरासी हजार टंक का व्यय हुआ, चैत्य तैयार हुआ तब बधाई देनेवाले को तीनलाख टंक दिये। इस तरह पेथड़विहार बना। तथा उसी पेथड़ने शत्रुजय पर्वत पर श्री ऋषभदेव भगवान् का चैत्य इक्कीस धड़ी सुवर्ण से चारों तरफ मढ़ाकर मेरु पर्वत की तरह सुवर्णमय किया। गिरनार पर्वत पर के सुवर्णमय बलानक (झरोखा) का वृत्तांत इस प्रकार है गयी चौबीसी में उज्जयिनिनगरी में तीसरे श्रीसागर केवलि की पर्षदा देखकर नरवाहन राजा ने पूछा कि, 'मैं कब केवली होऊंगा?' भगवान ने कहा-'आगामी चौबीसी में बाइसवें तीर्थंकर श्रीनेमिनाथ भगवान् के तीर्थ में तू केवली होगा।' यह
SR No.002285
Book TitleShraddhvidhi Prakaranam Bhashantar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherJayanandvijay
Publication Year2005
Total Pages400
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size8 MB
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