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श्राद्धविधि प्रकरणम् लोग मनुष्यलोक में तथा देवलोक में परमसुख पाते हैं। जिनबिंब बनवानेवाले लोगों को दारिद्र, दुर्भाग्य, निंद्यजाति, निंद्यशरीर, दुर्गति, दुर्बुद्धि, अपमान, रोग और शोक नहीं भोगना पड़ता।वास्तुशास्त्र में कही हुई विधि अनुसार तैयार की हुई,शुभलक्षणवाली प्रतिमाएं इस लोक में भी उदय(उन्नति) आदि गुण प्रकट करती हैं। कहा है किअन्यायोपार्जित धन से कराई हुई, परवस्तु के दल से कराई हुई, तथा कम अथवा अधिक अंगवाली प्रतिमा अपनी तथा दूसरे की उन्नति का नाश करती है।
जिस मूलनायकजी के मुख, नासिका, नेत्र, नाभि अथवा कमर इनमें किसी भी अवयव का भंग हुआ हो, उनका त्याग करना। परन्तु जिसके आभूषण, वस्त्र, परिवार, लंछन अथवा आयुध इनका भंग हो, वह प्रतिमा पूजने में कोई बाधा नहीं। जो जिनबिंब सो वर्ष से अधिक प्राचीन हो तथा उत्तमपुरुष द्वारा प्रतिष्ठित हो, वे बिंब अंगहीन हो तो भी पूजनीय है। कारण कि, वे बिंब लक्षणहीन नहीं होते। प्रतिमाओं के परिवार में अनेक जाति की शिलाओं का मिश्रण हो वह शुभ नहीं। इसी तरह दो, चार, छः इत्यादि समअंगुलप्रमाणवाली प्रतिमा कभी भी शुभकारी नहीं होती। एक अंगुल से लेकर ग्यारह अंगुल तक गृहमंदिर में एवं उस प्रमाण की प्रतिमा जिनमंदिर में पूजनी चाहिए, ऐसा पूर्वाचार्य कह गये हैं। निरयावली में कहा है कि लेप की, पाषाण की, काष्ठ की, दंत की तथा लोहे की और परिवार रहित अथवा प्रमाण रहित प्रतिमा घर में पूजने योग्य नहीं। घरदेरासर की प्रतिमा के सन्मुख बलिका विस्तार नहीं करना, परन्तु नित्य भाव से न्हवण और त्रिकाल पूजा मात्र अवश्य करनी चाहिए।
सर्व प्रतिमाएँ विशेष करके तो परिवार सहित और तिलकादि आभूषण सहित बनानी चाहिए। मूलनायकजी की प्रतिमा तो परिवार और आभूषण सहित होनी ही चाहिए। वैसा करने से विशेष शोभा होती है, और पुण्यानुबंधिपुण्य का संचय आदि होता है। कहा है कि जिनप्रासाद में बिराजित प्रतिमा सर्व लक्षण सहित तथा आभूषण सहित हो तो, उसको देखने से मन को जैसे-जैसे आल्हाद उपजता है, वैसेवैसे कर्म निर्जरा होती है। जिनमंदिर, जिनबिंब आदि की प्रतिष्ठा करने में बहुत पुण्य है। कारण कि, वह मंदिर अथवा प्रतिमा जब तक रहे, उतना ही असंख्य काल तक उसका पुण्य भोगा जाता है। जैसे कि, भरतचक्री की स्थापित की हुई अष्टापदजी ऊपर के देरासर की प्रतिमा, गिरनार ऊपर ब्रह्मेन्द्र की बनायी हुई कांचन बलानकादि देरासर की प्रतिमा, भरतचक्रवर्ती की मुद्रिका में से की हुई कुलपाकतीर्थ में बिराजित माणिक्यस्वामी की प्रतिमा तथा स्तम्भनपार्श्वनाथ आदि की प्रतिमाएँ आज तक पूजी जा रही हैं। कहा है कि, जल, ठंडा अन्न, भोजन, मासिक आजीविका, वस्त्र, वार्षिक आजीविका, यावज्जीव की आजीविका आदि वस्तुओं के दान से क्रमशः क्षणभर, एक प्रहर, एक दिवस, एक मास, छः मास, एक वर्ष और यावज्जीव तक भोगा जाय इतना पुण्य होता है; परन्तु जिनमंदिर, जिनप्रतिमा आदि करवाने से तो उसके दर्शन आदि से प्राप्त पुण्य अनंत काल तक भोगा जाता है। इसीलिए इस चौबीसी में पूर्वकाल में
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