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________________ श्राद्धविधि प्रकरणम् 363 , कारण कि बहुत से द्वार हो तो दुष्ट लोगों के आने-जाने की खबर नहीं रहती और उससे स्त्री, धन आदि के नाश होने की सम्भावना है। परिमित द्वारों के भी पाटिये, उला, सांकल,कुन्दे आदि बहुत मजबूत रखने चाहिए; जिससे घर सुरक्षित रहता है। किवाड़ भी सहज में खुल जाय व बन्द हो जाय ऐसे चाहिए; अन्यथा अधिकाधिक जीव विराधना हो और जाना-आना इत्यादिक कार्य भी जितना शीघ्र होना चाहिए उतना शीघ्र नहीं हो सके। भींत में रहनेवाली भागल किसी प्रकार भी अच्छी नहीं । कारण कि उससे पंचेन्द्रिय प्रमुख जीव की भी विराधना होना सम्भव है। किवाड़ बन्द करते समय जीवजन्तु आदि अच्छी तरह देखकर बन्द करना चाहिए। इसी प्रकार पानी की परनाल, खाल (मोरी) इत्यादि की भी यथाशक्ति यतना रखना चाहिए। घर के द्वार परिमित रखना इत्यादिक विषय शास्त्र में भी कहा है। जिस घर में वेध (छिद्र) आदि दोष न हो, सम्पूर्ण दल (पाषाण, ईंट और काष्ठ) नया हो, अधिक द्वार न हो, धान्य का संग्रह हो, देव की पूजा होती हो, आदर से जलआदि का छिटकाव होता हो, लाल परदा हो, झाड़ना पोंछना आदि संस्कार सदैव होते हों, छोटे बड़े की मर्यादा अच्छी तरह पालन की जाती हो, सूर्य की किरणों का अन्दर प्रवेश हो, आक के वृक्ष न हों, दीपक प्रकाशित रहता हो, रोगियों की शुश्रूषा अच्छी तरह होती हो और थके हुए मनुष्य की थकावट दूर की जाती हो, उस घर में लक्ष्मी निवास करती है। इस प्रकार देश, काल, अपना धन तथा जाति आदि को उचित हो ऐसे बंधाये हुए घर को यथाविधि स्नात्र, साधर्मिकवात्सल्य, संघपूजा आदि करके श्रावक को काम में लेना चाहिए। शुभमुहूर्त तथा शकुन आदि का बल भी घर बंधवाने तथा उसमें प्रवेश करने के अवसर पर अवश्य देखना चाहिए। इस प्रकार यथाविधि बंधाये हुए घर में लक्ष्मी की वृद्धि आदि होना दुर्लभ नहीं। ऐसा सुनते हैं कि, उज्जयिनी नगरी में दांताक नामक श्रेष्ठी ने अट्ठारह करोड़ स्वर्णमुद्राएं खर्च करके वास्तुशास्त्र में कही हुई रीति के अनुसार एक सात मंजिलवाला महल तैयार कराया। उसके तैयार होने में बारह वर्ष लगे थे। जब दांताक उस महल में रहने गया, तब रात्रि में 'पडूं क्या? पडूं क्या?' ऐसा शब्द उसके सुनने में आया। इससे भयभीत हो उसने मूल्य के अनुसार धन लेकर उक्त महल विक्रम राजा को दे दिया। विक्रमराजा उस महल में गया और 'पडूं क्या? पडूं क्या?" यह शब्द सुनते ही उसने कहा 'पड़' इतने में ही तुरन्त सुवर्णपुरुष पड़ा, इत्यादि । इसी तरह विधि के अनुसार बनवाये व प्रतिष्ठा किये हुए श्रीमुनिसुव्रत स्वामी की स्तूप की महिमा से कोणिक राजा प्रबल सेना का धनी था, तथापि उस विशालानगरी को बारह वर्ष में भी न ले सका। भ्रष्ट हुए कूलवालकसाधु के कहने पर जब उस स्तूप को गिरवा दिया तब उसी समय उसने नगरी अपने अधीन कर ली। इसी प्रकार याने घर की युक्ति के अनुसार दुकान भी उत्तम पड़ौस देखकर, न अधिक प्रकट, न अधिक गुप्त ऐसे स्थान में परिमित द्वारवाली पूर्वोक्त विधि के अनुसार ही बनाना उचित है। कारण कि, उसीसे धर्म, अर्थ और काम
SR No.002285
Book TitleShraddhvidhi Prakaranam Bhashantar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherJayanandvijay
Publication Year2005
Total Pages400
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size8 MB
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