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श्राद्धविधि प्रकरणम् आदि पांच ऊंबर तथा जिनमें से दूध निकलता हो ऐसे आक आदि की लकड़ी काम में न लेना। और बीजोरी, केल, अनार नीबू, दोनों जाति की हलदी, इमली, बबूल, बोर, धतूरा इनके काष्ट भी निरुपयोगी हैं। जो उपरोक्त वृक्ष की जड़ें पड़ौस से घर की भूमि में घुसें, अथवा इन वृक्षों की छाया घर के ऊपर आवे तो उस घरधनी के कुल का नाश होता है। घर पूर्वभाग में ऊंचा हो तो धन का नाश होता है, दक्षिण भाग में ऊंचा हो तो धन की समृद्धि होती है, पश्चिम भाग में ऊंचा हो तो वृद्धि होती है और उत्तरदिशा में ऊंचा हो तो शून्य हो जाता है। गोलाकार, अधिककोणयुक्त अथवा एक, दो या तीन कोणवाला, दाहिनी तथा बाईं और लंबा ऐसा घर रहने के योग्य नहीं। जो किमाड़.(द्वार) अपने आप ही बंध हो जाये अथवा खुल जाये वे अच्छे नहीं हैं; घर के मुख्यद्वार में चित्रमय कलशादिक की विशेष शोभा उत्तम कही जाती है। जिन चित्रों में योगिनी के नृत्य का आरम्भ, महाभारत, रामायण का अथवा दूसरे राजाओं का संग्राम, ऋषि अथवा देव के चरित्र हो वे चित्र घर में उत्तम नहीं। फले हुए वृक्ष, फूल की लताएँ, सरस्वती, नवनिधानयुक्त लक्ष्मी, कलश, बधाई, चतुर्दश स्वप्न की श्रेणी आदि चित्र शुभ हैं, जिस घर में खजूर, दाडिम, केल, बोर, अथवा बीजोरी इनके वृक्ष ऊगते हैं, उस घर का समूल नाश होता है। घर में जिनमें से दूध निकले ऐसा वृक्ष हो तो वह लक्ष्मी का नाश करता है,कंटीला वृक्ष हो तो शत्र से भय उत्पन्न करता है, फलवाला हो तो संतति का नाश करता है, इसलिए इनकी लकड़ी भी घर आदि बनाने के काम में न लेना। कोइ ग्रंथकार कहते हैं कि, घर के पूर्वभाग में बडवृक्ष, दक्षिणभाग में उंबर, पश्चिमभाग में पीपल और उत्तरभाग में प्लक्षवृक्ष शुभकारी है।
घर के पूर्वभाग में लक्ष्मी का घर (भंडार), आग्नेय कोण में रसोई घर, दक्षिण भाग में शयनगृह, नैऋत्य कोण में आयुध आदि का स्थान, पश्चिमदिशा में भोजन करने का स्थान, वायव्य कोण में धान्यागार (धान्य के कोठे) उत्तरदिशा में पानी रखने का घर और ईशान कोण में देवमंदिर बनाना चाहिए। घर के दक्षिण भाग में अग्नि, जल, गाय, वायु और दीपक, इनके स्थान करना और उत्तर तथा पश्चिम भाग में भोजन, द्रव्य, धान्य और देव के स्थान बनाना चाहिए। घर के द्वार की अपेक्षा से अर्थात् जिस दिशा में घर का द्वार हो वह पूर्व दिशा व उसीके अनुसार अन्य दिशाएं जानना। छींक की तरह यहां भी सूर्योदय से पूर्वदिशा नहीं मानना चाहिए। इसी प्रकार घर बनानेवाले सुतार तथा अन्य मनुष्य (मजदूर) उनको ठहराव से अधिक भी देकर प्रसन्न रखना, उनको कभी ठगना नहीं। जितने में अपने कुटुम्बादिक का सुखपूर्वक निर्वाह हो जाय, और लोक में भी शोभादि हो, उतना ही विस्तार (लंबाई चौड़ाई) घर बनाने में करनी चाहिए। संतोष न रखकर अधिकाधिक विस्तार करने से व्यर्थ धन का व्यय और आरंभआदि होता है। उपरोक्त कथनानुसार घर भी परिमित द्वारवाला ही चाहिए। १. पूर्वादिदिग्विनिर्देशो, गृहद्वारव्यपेक्षया। भास्करोदयदिक्पूर्वा, न विज्ञेयाँ यथा क्षुते ॥१८॥