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________________ श्राद्धविधि प्रकरणम् 364 की सिद्धि होती है। द्वितीय द्वार 'त्रिवर्गसिद्धि का कारण' इस पद का सम्बन्ध दूसरे द्वार में भी लिया जाता है, इससे ऐसा अर्थ होता है कि, धर्म, अर्थ और काम इन तीनों की सिद्धि जिससे होती हो, उन विद्याओं का याने लिखना, पढ़ना, व्यापार इत्यादि कलाओं का ग्रहण अर्थात् अध्ययन उत्तम प्रकार से करना । कारण कि, जिसको कलाओं का शिक्षण न मिला हो, तथा उनका अभ्यास जिसने न किया हो, उसको अपनी मूर्खता से तथा हास्यप्रद अवस्था से पद-पद पर तिरस्कार सहना पड़ता है। जैसे कि, कालीदास कवि प्रथम तो गाये चराने का धन्धा करता था। एक समय राजसभा में उसने 'स्वस्ति' ऐसा कहने के स्थान में 'उशरट' ऐसा कहा, इससे उसका बड़ा तिरस्कार हुआ। पश्चात् देवता को प्रसन्न करके वह महान् पंडित तथा कवि हुआ । ग्रन्थ सुधारने में, चित्र सभादर्शनादिक कृत्यों में जो कलावान हो; वह परदेशी होने पर भी वसुदेवादिक की तरह सत्कार पाता है। कहा है कि पंडिताई और राजापना ये दोनों समान नहीं हैं। कारण कि, राजा केवल अपने देश में ही पूजा जाता है, और पंडित सर्वत्र पूजा जाता है। " सर्व कलाएँ सीखनी चाहिए। कारण कि देशकाल आदि के अनुसार सर्व कलाओं का विशेष उपयोग होना सम्भव है। ऐसा न करने से कभी-कभी मनुष्य निम्न दशा में आ जाता है। कहा है कि - सट्टपट्ट भी सीखना, कारण कि, सीखा हुआ निष्फल नहीं जाता। सट्टपट्ट के प्रसाद से ही गोल (गुड़) और तुंबडा खाया जाता है। सब कलाएँ आती हों तो पूर्वोक्त आजीविका के सात उपायों के एकाध उपाय से सुखपूर्वक निर्वाह होता है तथा समय पर समृद्धि आदि भी मिलती है। सर्व कलाओं का अभ्यास करने की शक्ति न हो तो, श्रावक पुत्र को जिससे इस लोक में सुखपूर्वक निर्वाह हो और परलोक में शुभगति हो ऐसी किसी एक कला का तो सम्यक् प्रकार से अभ्यास अवश्य करना चाहिए। कहा है कि श्रुतरूपी समुद्र अपार है, आयुष्य थोड़ा है, वर्तमान के जीव क्षुद्रबुद्धि हैं, इसलिए ऐसा कुछ तो भी सीखना चाहिए कि जो थोड़ा हो, और इष्टकार्य साधक हो। इस लोक में उत्पन्न हुए मनुष्य को दो बातें अवश्य सीखनी चाहिए। एक तो वह कि, जिससे अपना निर्वाह हो, और दूसरी वह कि, जिससे मरने के अनन्तर सद्गति प्राप्त हो । निंद्य और पापमय कार्य से निर्वाह करना अनुचित है। मूलगाथा में 'उचित' पद है, इसलिए निंद्य तथा पापमय व्यापार का निषेध हुआ ऐसा समझना चाहिए। तृतीय द्वार पाणिग्रहण याने विवाह, यह भी त्रिवर्ग अर्थात् धर्म, अर्थ और काम की सिद्धि का कारण है, इसलिए योग्यरीति से करना चाहिए । विवाह अपने से पृथक् गोत्र में उत्पन्न तथा कुल, सदाचार, शील, रूप, वय, विद्या, संपत्ति, वेष, भाषा, प्रतिष्ठा आदि से अपनी समानता के हों उन्हीं के साथ करना चाहिए। शील आदि समान न हों
SR No.002285
Book TitleShraddhvidhi Prakaranam Bhashantar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherJayanandvijay
Publication Year2005
Total Pages400
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size8 MB
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