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________________ 24 श्राद्धविधि प्रकरणम् कत्तिअ मासखवणं साहू पडिलाभिए लहइ ।।११।। शत्रुजयतीर्थ का ध्यान करने से हजार पल्योपम के बराबर अशुभकर्म का स्थितिक्षय हो जाता है, यात्रा की बाधा (मानता) लेने से लाख पल्योपम के समान अशुभकर्म की स्थिति का क्षय हो जाता है और शत्रुजय को जाने के मार्ग में पैर रखने से एक सागरोपम के बराबर अशुभ कर्म की स्थिति का क्षय होता है। शत्रुजय पर्वत ऊपर श्री आदिनाथ भगवान् के दर्शन करने से तिर्यंच व नारकी इन दो दुर्गतियों का नाश होता है। उसी तरह कोई भव्यप्राणी वहां स्नात्र पूजा करे तो हजार सागरोपम के बराबर अशुभकर्म की स्थिति का क्षय होता है। कोई भव्यजीव शत्रुजय पर्वत की ओर जाने के लिए एक-एक पैर रखे तो करोड़ों भवों में किये हुए पापों से भी वह मुक्त हो जाता है। कोई शुद्धपरिणामवाला प्राणी अन्य स्थान पर करोड़ पूर्व पर्यन्त शुभध्यान करके जितना शुभ कर्म संचय करता है, उतना शुभ कर्म इस पर्वत में दो घड़ी मात्र शुभ ध्यान करने से संचय कर लेता है। करोड़ों वर्ष तक मुनिराज को इच्छित आहार देने से तथा साधर्मीक भाई को इच्छाभोजन देने से जो पुण्य संचित होता है वही पुण्य शत्रुजय पर्वत ऊपर सिर्फ एक उपवास करने से संचित होता है। जो भव्य प्राणी भावपूर्वक शत्रुजय पर्वत को वंदना करता है उसने स्वर्ग में, पाताल में तथा मनुष्यक्षेत्र में जितने तीर्थ हैं उन सबका दर्शन कर लिया ऐसा समझना चाहिए। यदि कोई प्राणी श्रेष्ठ शत्रुजय तीर्थ के दर्शन करे अथवा न करे परन्तु जो शजय को जाते हुए संघ का वात्सलय करे तो भी बहुत ही शुभ कर्म संचय करता है, यथा शत्रुजय पर्वत को न देखकर भी जो शत्रुजय के संघ का ही केवल वात्सल्य करता है उसे साधारण साधर्मिकवात्सल्य की अपेक्षा करोड़ गुणा पुण्य प्राप्त होता है, तथा जो शत्रुजय के दर्शन करके संघ वात्सल्य करता है वह अनंतगुणा पुण्य प्राप्त करता है। जो भव्य प्राणी मन, वचन काया की शुद्धि रखकर प्रथम शत्रुजय तीर्थका स्मरण करे, पश्चात् आहार त्याग के निमित्त नवकारसी, पोरिसी, पुरिमड्ड, एकाशन, आंबिल, छट्ठ, अट्ठम, दशम (चार उपवास), दुवालस (पांच उपवास), मासखमण, अर्धमासखमण (पन्द्रह उपवास) आदि पच्चक्खान करे, वह पच्चक्खान का परिपूर्ण फल पाता है। शत्रुजय पर्वत के ऊपर पूजा तथा स्नात्र करने से मनुष्य को जो पुण्य उपलब्ध होता है, वह पुण्य अन्य तीर्थ में चाहे कितना ही स्वर्ण, भूमि तथा आभूषण का दान देने पर भी प्राप्त नहीं हो सकता। कोई प्राणी शजय पर्वत पर धूप पूजा करे तो पन्द्रह उपवास का, कपूर का दीपक करे तो मासखमण का और मुनिराज को योग्य आहार दान करे तो कार्तिक मास में किये हुए मासखमण का पुण्य प्राप्त करता है। जिस प्रकार तालाब, सरोवर, नदियां आदिजल के सामान्यस्थान तथा समुद्र जलनिधि कहलाता है उसी तरह अन्य तो तीर्थ हैं किन्तु यह शत्रुजय महातीर्थ कहलाता है। जिस पुरुष ने शत्रुजय की यात्रा करके अपने कर्तव्य का पालन नहीं किया उसका मनुष्य भव, जीवन, धन, कुटुम्ब आदि सब व्यर्थ हैं। जिसने शत्रुजय तीर्थको वन्दना नहीं की उसको मनुष्य भव मिलने पर भी न
SR No.002285
Book TitleShraddhvidhi Prakaranam Bhashantar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherJayanandvijay
Publication Year2005
Total Pages400
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size8 MB
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